व्यंग्य – स्वयं से स्वयं की परिचर्चा
खेत में पानी आ चुका था, क्योंकि दूध से सफेद बगुले फर्र-फर्र करके आने लगे थे, ठीक वैसे ही जैसे भारतीय नेता फक्क सफेद कुर्ता पहनकर चुनावी मैदान में कूद पड़ते हैं । मैं कंधे पर फावड़ा रखे सरपट खेत की मेड पर चला जा रहा था कि पीछे से अचानक आवाज आई । ‘काहे रे मुकेशा ! आजकल तेरी चिट्ठी-फिट्ठी ना आहि रहीं, कहा बात है, पत्रकारिता छोड़ि दई का ।’ पीछे मुड़कर देखा तो चिम्पू था, पूरे उपहास वाले लहजे में पुनः भौंकने वाला ही था कि, ‘तो सूं फिर बात करेंगौं’ कहकर मैं आगे बढ़ गया।
पानी खेत में छोड़कर मैं आराम से मेड पर बैठ गया । जिराफ सी लंबी गर्दन करके मैंने दूर तक देखा चिंपू कहीं दिखाई न दिया । शायद वो निकल गया था। अब इस बेचारे चिंपू को कौन समझाए कि मैं तो झोलाछाप पत्रकार हूं । कभी कबार मूड बनता है तो लिख मारता हूं, क्योंकि अपुन कोई ब्रांडेड पत्रकार तो है नहीं, जिसके यहां विधायक, सांसद, मंत्री, दरोगा आदि आते- जाते हों।अपुन दलाली -बलाली जानता नहीं, इसीलिए पुलिस थानों, चौकियों में आना- जाना नहीं होता । अगर बाकी औरों की तरह मैं भी पत्रकारिता के नाम पर अवैध वसूली करता तो यहां खेत में पानी थोड़े ही लगा रहा होता । किसी दुकानदार या फर्म वाले को डरा धमकाकर विज्ञापन की जुगाड़ लगा रहा होता या फिर किसी सरकारी कर्मचारी के तेल लगा रहा होता या फिर दरोगा जी की चरण वंदना कर रहा होता । पर हां माल जेबों में जरूर भर रहा होता ।
किसी बड़े ब्रांडेड अखबार से जुड़ नहीं पाया, क्योंकि शुरू से ही एक बीमारी थी स्वतंत्रता नाम की, बस परतंत्रता स्वीकार नहीं हुई इसलिए आजकल स्वतंत्र पत्रकार हूं । सच तो यह है कि स्वतंत्र पत्रकार का अस्तित्व कुछ भी नहीं । एक साहित्यकार ही स्वतंत्र पत्रकार है और शायद वही मैं हूं ।
सभी जानते हैं दुनिया का सबसे भोला और बेवकूफ प्राणी किसान है । और मैं तो जन्मजात किसान हूं । मेरे पुरखों की अब तक जितनी पीढ़ियां इस धराधाम पर अवतरित हुई हैं, वे सब की सब अपने माथे पर किसान का लेवल चिपका कर ही मर खप गई । मैं पढ़ लिख तो गया पर किसानी का चोला उतार कर फेंक नहीं पाया । आजकल मैं एक सीधा – साधा किसान हूं सो आप मुझे एक पढ़ा-लिखा किसान बेवकूफ कह सकते हैं । कभी-कभी मैं किसानी से भी आगे निकल जाता हूं जिसे लोग मजदूर के नाम से जानते हैं । मजदूर दुनिया का वह प्राणी है जिसका खून सबसे ज्यादा मीठा और स्वादिष्ट होता है । इसीलिए कोई भी ऐरा- गैरा मजदूर का खून पीने के लिए हमेशा लालायित रहता है ।
पढ़े लिखे जितने भी मानुष हैं वे एक बार दिल पर हाथ रख कर कह दें कि किसान- मजदूरों के बगैर क्या यह संसार चल सकता है…। लेकिन लोग नेताओं, अभिनेताओं, साधुओं के पीछे पागल बने फिर रहे हैं । नेता घुमाता है, अभिनेता बेवकूफ बनाता है और साधु अंधविश्वासी बनाता है ।
अंट-संट सोचते – सोचते काफी समय हो गया । अपने स्मार्टफोन को ऑन किया और मेल देखने लगा । तमाम लघु पत्र-पत्रिकाओं का पीडीएफ आ चुका था, उन सब को खोल- खोलकर सरसरी नजरों से उनमें अपने किसी लेख, कविता को ढूंढने लगा जो प्रकाशित हुए हों….।
— मुकेश कुमार ऋषि वर्मा