कहानी – उनकी सुरक्षा
”सुना है बापू, हम हमारी सड़क भी बंद होने वाली है, आज स्कूल में सब बच्चे बोल रहे थे।“ देवी ने अपना स्कूल का छोटा बस्ता अंदर रखते बोला। देवी का घर तंग घाटी के एक ओर की ऊंची पहाड़ी के ऊपरी छोर पर है। उसका बापू बाहर छप्पर के बाहर छोटे से खेतनुमा क्यारी में मिट्टी खोद रहा था। देवी ने पानी का गिलास पीया और फिर बापू के पास आकर खड़ी हो गई। नीचे घाटी में आईआईटी मंडी की सफेद रंग की सैंकडों बिल्डिंग्स का ढेर दिखाई दे रहा था। उसके मन में प्रश्नों की खरपतवार तब उगनी शुरू हुई थी जब ये जंगल उगना शुरू हुआ था।
वह बस कुछ पल सोचती रही,”हमारे स्कूल के सिर्फ 12 कमरे है और छत पर भी बदरंगी सी टीन है,फर्श जगह- जगह से उखड़ गया है। पर उनके भवनों की क्या शान है आखिर वहां कौन सी पढ़ाई होती होगी। वे किस तरह के विद्यार्थी होंगे? उनके अध्यापक कैसे होंगे?“ फिर एकदम से बोली, ”ऐसा क्यों बापू?“
मन में पीढ़ा को दबाए एक प्रश्न ऊपर धार की ऊँचाई से ऐसा फिसला कि वह हज़ारों फीट की ऊँचाई से वादी में सहमी-सहमी बहती ठंडी हवा के साथ घुलमिल कर दूर तक फैल गया। बापू ने फावड़ा एक कोने पर रखा और लंबी सी साँस लेकर कहा, हम लोग, हमारी पुरानी सड़क व जंगल का रास्ता उनकी सुरक्षा के लिए ठीक नहीं है देवी। हमारी पुरानी सड़क आईआईटी के बीच से जो गुज़रती है।“
”तो फिर हम कहाँ से आएँगे। हमारी बस कहाँ से आएगी। हमारा इंतज़ाम वे कर देंगे। हमारे लिए अलग से पुल बनेगा।“
नए पुल के नाम से भी 12वीं में पढ़ती देवी के मन को कुछ अच्छा सा नहीं लगा।
”पर उन्हें क्या समस्या है हम आईआईटी के बीच से अपनी पुरानी सड़क से क्यों नहीं आ सकते?“
”बच्ची वे लोग हमारे होने से परेशान होंगे, उनकी सुरक्षा जरूरी है।“
”कैसी सुरक्षा! तो क्या हम उनकी सुरक्षा को नुकसान पहुँचाएंगे, क्या उन्हें हमसे खतरा है?“
”अब खतरा तो नहीं पर आईआईटी के गेट को बार-बार खोलना पड़ेगा। इससे चैकीदारों को तकलीफ़ होगी।“
”क्या अब हम उस गेट के अंदर भी प्रवेश नहीं कर सकते, तो फिर हमारी सड़क, हमारा रास्ता बंद हो जाएगा।“ देवी के चेहरे पर सैंकड़ों प्रश्नों की लकीरें उभरती जा रही थी, ठीक वैसे ही जैसे वह अपनी कापियों के कोरे कागज़ पर गणित, भौतिकी के डाइग्राम बनाते वक़्त लकीरों को आकार देती है, पर यहाँ बहुत से इंसान मिलकर आधुनिक शिक्षा का आकार बना रहे थे। जिसमें एक तरफ था आईआईटी का विशाल जंगल और दूसरी तरफ़ देवी के मन में उभरते छोटे प्रश्नों की चिंगारी।
उसके बापू मंनत राम ने सीढ़ीनुमा खेतों को जोतकर अपना काम धंधा चलाया है।
अगले दिन देवी बापू के पास गई और एक लगभग अनपढ़ बापू के हाथ में एक कागज़ का टुकड़ा पकड़ाती बोली, ”बापू आप यह कागज़ पंचायत प्रधान के पास पकड़ा दो, फिर देखो क्या होता है, यह तो सरकार तक हमारी गुजारिश पहुंच जाएगी, यह फिर वे अपने निर्णय को बदलने में सोच विचार कर सकते है।“
”क्या लिखा है इसमें, अच्छा सड़क बंद करने के कारण, अरे बेटी! तू पढ़ लिखकर यह क्या लिखने लगी है? हमारी इच्छाएं सिर्फ धूमिल होने के लिए अकंुरित होती है ओर तू इतनी बड़ी बात सोचने लग पड़ी। अच्छा फिर भी तू पढ़ती है कई कुछ सीखती है चलो ये भी कर देता हूं।“
”हां, हां, बापू हमारे अध्यापक कहते है कि बस आप अपनी बात को आग पहुंचाने का निश्चय करो, हम लोकतंत्र वाले देश के वासी हैं।“
”वो तो ठीक है बेटी लेकिन पहाड़ों में लोकतंत्र भी तंत्र करता है। हमारे सपने तुच्छ होते है और सरकार अपनी जनता की छोटी भावनाओं को समझने में समय खराब नहीं करती।
बस एक अनपढ़ बाप पढ़ रही बेटी की बातों में आकर कागज़ के टुकडे़ पर चंद शब्दों में दुबकी विद्रोह व बदलाव की चिंगारियां लिए पंचायत प्रधान के पास निकल गया। पूरे रास्ते बाप का मन बड़े-बड़े ऊचे दर्रों से फिसलता रहा और खुद ही उठकर उन बीहड़ों के गुप्त अँधेरों में चन्द्र किरणें ढूँढता रहा।
पंचायत के पास मंनत राम की फरियाद पहुँच गई। पंचायत के प्रधान ने कहा, ”देख भई मंनत, हम तो सिर्फ़ फरियाद कर सकते है पर जो बात सड़क की है तो वो तो बनेगी, अब तुमने बेटी की बात पर चिट्ठी हमें दी है, हम इसे किसे दें। अब अगर पीडब्लयूडी को बोलें तो सड़क बनाने में आईआईटी, केंद्र सरकार और राज्य सरकार की मर्ज़ी है और इससे हमें क्या फर्क पड़ता है। वैसे तुम भी बचकानी हरकतें करने लग पड़े। वहाँ 56 बिल्ंिडगें बन रही हैं एक-एक बिल्ंिडग पर करोड़ से ज़्यादा रुपए खर्च कर रही केंद्र सरकार, अब तुम्हें क्या अपने इलाके की तरक्की से कुछ लेना देना नहीं है? कौन पूछता था इस घाटी को, बस यहाँ भेड़-बकरियाँ चरती थी, और अब पूरी दुनिया इस जगह को जान गई है देश के बच्चे यहाँ आ रहे हैं।“ मंनत राम
पंचायत प्रधान फिर बोले, ”अच्छा बेटा तुम्हारा क्या करता है? सुना है बारहवीं की पढ़ाई के बाद बेहला है, तुम चाहो तो आईआईटी में गार्ड की नौकरी पर रखवा देता हूँ, डारेक्टर साहब हम पंचायत के लोगों को प्राथमिकता देते हैं पर भई सोच समझ कर फ़ैसला कर लेना। तेरी यह फरियाद हम एसडीओ आॅफ़िस में पहुँचा देंगे, पर जब तेरे बेटे की नौकरी की बात आएगी तो फिर डारेक्टर के पास पूरे गाँव का एक भी बंदा कभी काम के लिए फरियाद नहीं कर पाएगा। मैं कहता हूँ तू एक बार सोच ले ठंडे मन से और घर जाकर अपनी पत्नी, बेटी और बेटे से सारी बात कर ले और हाँ बेटे के बारे में ठीक से सोच लेना, देर की तो फिर ऊपरी गाँव के किसी लड़के को रखवा देंगे। वैसे भी पंचायत के पास डारेक्टर की चिट्ठी आई है।“
मंनत राम के शरीर के अंदर छिपा मन जैसे धार से फिसलकर गहरी कंदरा में गिर गया था। काग़ज का टुकड़ा उसने फिर से जेब में ठूँस लिया था। यह टुकड़ा अब जैसे विद्रोह की चिंगारी से खु़द ही जल गया था। पूरे रास्ते उसके मन में देवी के प्रति गुस्सा भर रहा था। उसे अपनी मूर्खता पर गुस्सा आ रहा था जो वह अपनी बेटी की बातों में आ गया। वह तो अभी बच्ची है अध्यापकों की बातों से उसके मन में अधिकार के बीच अंकुरित हो रहे हैं पर वह ख़ु़द तो समझदार है।
वह घर पहुँचा तो देवी फिर से सामने आ गई, ”बापू दे आए एप्लीकेशन,“ पानी का गिलास पकड़ाते उसका यही प्रश्न था। मंनत राम को जैसे उसका दिया पानी कड़वा सा लगा। मन ने एक दम से झूठ ने पासा फेंका।
”हाँ, अब चिठ्ठी आगे विभाग को चली जाएगी, वे ही सोचेंगे। अच्छा बकरियों को छोड़ दे, मैं ज़रा धार में चरा आता हूँ, तू अभी स्कूल का काम करेगी।“ और मंनत राम ठंडी होती धूप के सहारे बकरियों को हाँकता पल में ही इस मुसीबत से दूर हो गया।????
कुछ दिनों के बाद देवी ने अपने बापू मंनत राम को गहरी नींद से उठा कर फिर पूछा, ”बापू, आप ने प्रधान से पूछा न होगा दोबारा, हमारी चिठ्ठी क्या पहुँच गई होगी। आज हम स्कूल से आ रहे थे तो दूसरी ओर बड़ी जेसीबी मशीनें खुदाई करने लग पड़ी है। मुझे लगता है कि दूसरी ओर से सड़क बनने शुरू हो गई है, हमारी चिठ्ठी पर उनको कोई लेना देना नहीं।“
मंनत की शांत खोपड़ी पर जैसे पत्थरों की बारिश हो गई हो। ”अच्छा मैं देखता हूँ नीचे जाकर। कल पीडब्ल्यूडी दफ़तर भी जा आऊँगा, वैसे प्रधान ने तो अपना काम कर दिया होगा।“
उसे जैसे उसे ख़्याल आया, ”अरे प्रधान को तो बेटे के नाम से चिठ्ठी लिखवानी थी वरना शायद किसी और को न रखवा दे। उसने जैसे देवी की ओर झूठ से भरी आँखों से देखा और अपने अंदर स्वार्थ को थैले को सम्भाला। ”अच्छा मैं प्रधान के पास जा रहा हूँ, तुम लोगों ने आलू के खेत की नंदाई करनी है आज।“ और मंनत राम प्रधान के पास पहुँच गया।
”हाँ भाई, आज क्या इच्छा है, कहीं फिर से वही कागज़ तो नहीं ले आए मंनत राम।“
प्रधान कृपा राम ने जैसे मंनत को शर्मिंदा कर दिया था।
”अब प्रधान जी, इस बार तो आपको अपने बेटे के बारे में।“
”अच्छा, अच्छा पर भई ज़रा यह तो बता दो कि वह चिठ्ठी तुम क्यों सीधे विभाग को दे आए।“
मंगत का जैसे मरण हो गया। मंनत राम बोला,”देव पराशर का प्रकोप चढे़, क्या बात करते हो? प्रधान जी,“ मंगत ने अपने कोट के अंदर से वह पुरानी चिठ्ठी प्रधान के हाथ पर रख दी, ”प्रधान जी, पहाड़ के आदमी हैं देखो तो यह रखी है, मैंने सम्भाल कर। महीना हो गया, बस यही दफ़न थी।“
”तो फिर भाई तेरे नाम की चिठ्ठी एसडीओ दफतर तक किसने पहुँचाई।“
बस मंनत का कलेजा फटने लगा, ”अरे यह तो देवी का काम है, बाहरवीं में पढ़ रही है, कहीं यह उसका काम तो नहीं हैं।“
मंनत प्रधान के आगे न्तमस्तक हो गया था। उसके मन में मानो घमासान उसे पहाड़ की चोटी से नीचे गिरा चुका था। जैसे एक छोटी इच्छा यूँ फिसली कि उसे वह चोटी से गिरते हुए बचा न सका। मंनत राम अब किस मुँह से प्रधान के सामने फरियाद कर सकता था। वह बेबस सा उठने को हुआ। ”चिंता न करो मंनत राम, मैं तुम्हारी स्थिती और मजबूरी समझ गया। ये शायद तेरी बेटी का काम है पर बच्चे है आजकल के, पर समझते कम है, तू मन छोटा न कर मैं पहले ही समझ गया था, बस मैं चुपचाप एसडीओ साहब को बता आऊँगा कि मामला ठंडे बस्ते में डाल दे, पर एक बात है कि तुम चुपचाप ही रहना घर में, जैसे तुझे किसी बात का पता नहीं, बच्चों से लड़ाई मत कर बैठना, नहीं तो घर में अशांति फैलेगी।“
नीचे काम शुरू हो गया है, पुल भी बनने वाला है, बस अब देव पराशर के मेले में इस बार नए पुल से जाएँगे सब। भई केंद्र सरकार का पैसा लग रहा है, छोटे मोटे मामले तो कोर्ट में भी दर्ज नहीं होते। बच्चे हैं जो पढ़ते है उसे पल में जीवन में पा लेना चाहते है, तुझे अपनी लड़की पर फक्र होना चाहिए, ऐसे ही बच्चे चाहिए अब हमें, हमने तो अपनी मजबूरी के साथ पहाड़ को भी मजबूरी की चादर ओढ़कर सोना सिखा दिया हैं पर तू मुझ पर विश्वास रखना, तेरे बेटे की नौकरी पक्की समझ। तू अपना बंदा है। तेरे साथ धोखा न होगा, देव पराशर मुझे माफ़ करे।“
मंनत राम ने जैसे ठंड से अपने मन में उमड़ते गुस्से को जमा दिया। घर पहुँच कर जैसे वह बर्फ़ बन गया हो। देवी से पूछने को उसका मन चाहे बकरी के मेमने की तरह उछल रहा हो पर फिर भी वह चुप रहा। उधर देवी ने बाप के चेहरे पर उभरती विभिन्न भावों की रस्सियों को पकड़ लिया था।
”बापू, एक बात तो मैं बताना भूल गई थी, हमारी कक्षा के विद्यार्थी स्कूल के समय पीडब्लयूडी विभाग के दफतर गए थे पिछले सप्ताह, अध्यापकों ने हमारा दौरा करवाया था। हमारे अंगे्रजी के अध्यापक ने अपने आस-पास की कोई समस्या भी विभाग को लिखित रूप में दर्ज करवाने को कहा था। मुझे वही चिठ्ठी याद आ गई जो मैंने लिखकर आपको दे दी थी, हमने एक पत्र लिखकर अपना नाम और आपका नाम लिखकर दे दी थी। पर मुझे लगता है कि हमारी बात को कोई नहीं सुनेगा। चिठ्ठी देते समय वह अफसर बड़ी देर हमारे मुँह की ओर देखता रहा था।“
मंनत राम को प्रधान की बात याद आ गई, ”बहुत अच्छा किया, बाकी जो देव पराशर चाहेंगे वही होगा बेटी, बस हमारे देव की जो इच्छा।“
समय बीतने लगा। ऊँची धौलाधार की शांत फैली चोटियों ने शीत निद्रा में जाने का निर्णय कर लिया था, और छोटी चोटियों ने भी कभी- कभार बर्फ़ के फाहे ओढ़ने की मन में इच्छा पाल ली थी। वे ऊपर आकाश में एकटकी लगा कर बर्फ़ के फाहों का इंतज़ार करने लग पड़ी थीं। ऊधर देवी के मन में उगता नन्हा पौधा भी अपने पत्ते झाड़ रहा था। मंनत राम उस पल का इंतज़ार कर रहा था जब उसको प्रधान का संदेश आएगा।
बर्फ़ ने घाटी को एक बार तो सुला दिया, धौलाधार की ऊँची चोटी पर स्थित देव पराशर के मुख्य मंदिर के कपाट बंद हो गए। मंनत के गाव में गिरी पतली बर्फ़ तो दो- तीन दिन में पिघल गई पर मंनत के मन में पल- पल अँगारे जल उठते रहे हैं। देवी ने स्कूल से आते ही बापू के हाथ में एक चिठ्ठी थमा दी जो खुली थी, आखिर खुली तो होगी ही, पढ़ती तो वही है। मंनत राम ने स्कूल में कुछ वर्ष तो बिताए थे पर भेड़- बकरियों के रेवड़ को हाँकते- हाँकते न जाने किताबों के अक्षर रेवड़ से भटक कर कहाँ खो गए, जिन्हें मंनत ने कभी न ढँूढा। बापू को शुभ संदेश मिला था, ”बापू आईआईटी की चिठ्ठी है, भईया के नाम नौकरी का पत्र है आज से तीने महीने के अंदर गार्ड का काम स्वीकार करना होगा। अपने क्षेत्र के उत्थान के लिए यह कार्य वे कर रहे हैं।
मंनत के मुँह से बस यही निकला, ”जय पराशर देवा।“ पर देवी जैसे से बर्फ़ बन गई थी। वह अंदर जाकर रोने लगी थी। उसकी माँ ने, बाप ने, भाई ने उसे चुप नहीं कराया। देवी सोचने लगी थी और रोते- रोते बोलती जा रही थी ”अब मेरा भाई वहाँ नौकरी करेगा, जिन्होंने हमारी सड़क बंद कर दी है, बापू उन्होंने हमारे को छोटा समझा है, वे नहीं चाहते कि गद्दियों का रेवड़ कैंपस के बीच से गुज़रे। हे देव पराशर! यह सब क्या है?“
सभी ने सोचा, भाई का दुख मना रही है कि वह कैसे नौकरी करेगा, बाकी उसको क्या पता ज़िंदगी कैसे खेल रचती है। देव पराशर की जय!
कुछ ही महीनों में नई सड़क बन चुकी थी। नया पुल भी तैयार था। उद्घाटन भी नहीं हुआ और कई गाँवों के लोगों ने नई सड़क को अपना लिया था। बस का एक रूट था तो बस ने भी नई सड़क की ओर दिशा बदल दी थी। बस अब लोग आईआईटी के बाहर से ही बड़ी- बड़ी शिक्षा की दीवारों को फाँदने की कोशिश नहीं कर सकते थे।
देवी के भाई ने गार्ड की नौकरी कर ली थी पर देवी ने उससे ज़्यादा कुछ न पूछा था। देवी का विद्रोह का पौधा तो अपने पेपरों की ख़त्म होने से पहले ही सूख गया था।
पेपर ख़त्म हो गए और अंतिम पेपर प्रेक्टीकल का जल्दी ही ख़त्म हो गया। बस तो चार बजे जाती थी। उसने अपनी दो सहेलियों संग पुराने रास्ते से आईआईटी के बीच से जाने का मन बनाया। शिक्षा के मंदिर भव्य बन चुके थे। पक्की सड़कें ऐसे फैली थी जैसे बेले हों। उन्हें आनंद मिल रहा था। वे निहार रही थीं, बस निहार रही थीं, सुंदर चेहरे वाले विद्यार्थी पता नही किन- किन प्रदेशों के थे, इक्का दुक्का इतने बड़े बिल्ड़िगों के जंगल में चीटियों से रेंग रहे थे। देवी ने कहा ”चलो हम गेट को पार कर आईआईटी के बीचे से गुजरेंगी, मेरा भाई भी अब वहाँ गार्ड है, वह हमें कहीं गेट पर भी मिल सकता है।“
तीनों सहेलियाँ मुख्य गेट पर पहुँची। बस खुले गेट से जैसे ही उन्होंने प्रवेश किया, उनके सामने एक वर्दीदारी गार्ड सामने आ चुका था। ”कहाँ जाना चाहती हो लड़कियो? आम लोगों के लिए प्रवेश निषेद्ध है।“
”जी, जी मेरा भाई भी आईआईटी में गार्ड है।“
”अच्छा- जो अभी नया आया है तो फिर भी आप अंदर नहीं जा सकती, सड़क बंद है।“
देवी ने फिर कहा, ”अच्छा आप क्या उनसे मिलवा सकते है। अरे हाँ वो रहा, इसी गेट पर उसकी डयूटी है।“
नई वर्दी में सजा देवी का गार्ड भाई सामने था। भइया, हमें पुरानी सड़क से जाना है। गार्ड भाई ने सिर झुका लिया था। उसका झुका सिर अपने सीनियर से गुजारिश कर रहा था।
गार्ड बोला, ”नहीं, नियम सबके लिए है। डारेक्टर साहब के निर्देश को हम तोड़ नहीं सकते। आपको उसी नई सड़क से जाना होगा। यह सड़क अब बंद है। हाँ थोड़ा घूमना है तो आपका भाई आपको घुमा देगा।“
देवी को अपने बापू की बात ने जैसे फिर पीछे से पकड़ लिया हो, ”बेटी उनकी सुरक्षा को खतरा है।“ पहाड़ की जिंदगी का सारा स्वाभिमान सारी पढ़ाई, जैसे किसी बादल फटने की घटना में बह गया हो। देवी का भाई ऐसे चुप खड़ा था जैसे वह कभी बोलता न हो यहाँ तो उसे जैसे साँप ने काट खाया हो, देवी का स्वाभीमान इस वक्त ऐसे पिघल रहा था जैसे ताज़ा बर्फ़ धूप की मामूली गर्माहट से अपनी ठोसता को भूलकर बह निकलती है। देवी ने अपनी सहेलियों के चेहरे की ओर देखा और अपने कदम मोड़ लिए। ”नहीं हमें नहीं घूमना है, आप की सुरक्षा को कहीं खतरा न हो जाए।“
बस तीनों सहेलियाँ वापिस मुड़ गई। उन्होंने नई सड़क जो मात्र आईआईटी की चार ऊँची चारदीवारी के बाहर बनी थी, पर कदम बढ़ा दिए। लगभग एक किलोमीटर के बाद वे अपनी पुरानी सड़क से मिल गई और फिर धार की आधी ऊँचाई तक पहुँच कर देवी को एक मोड़ से नीचे दर्जनों बिल्डिगों का जमावड़ा नज़र आया। उसे वे जैसे लग रहे थे जैसे ये धब्बे हैं। उसने अपना मुँह मोड़ लिया था। उसके मन में कई विचार पूरे पैदल रास्ते उसके साए की छाँव में चलते रहे। न विचारों में पहाड़ के लोगों के आँसू टपक रहे थे, न विचारों में गरीबी के आँसू थे लेकिन इन आँसुओं की तासीर पहाड़ के आँसुओं जैसी ही थी जो बहुत अपमानित और ठगे गए होने के बावजूद। उसके विचार कुछ ऐसे थे अच्छा ये पहाड़ की सुंदरता का दोहन करने आए हैं, पहाड़ की देवी बड़ी देर चुप रहने के बाद साथ चलती सहेली से बोली, ”मैं तो कहती हूँ कि उन्हें तो सिर्फ पहाड़ की सुंदरता का दोहन करना है। इसके अलावा उन्हें अब यहाँ के स्थाई वाशिंदे बुरे लगने लगे है। तभी तो हमारे लिए अलग से सड़क।“
सहेली ने भी हाँ में हाँ मिला दी। हम चाहकर भी आईआईटी में एडमिशन नहीं ले सकते। हमारी पढ़ाई इनके स्तर की नहीं यह अलग दुनिया के लोग है जेईई में कभी पास नहीं होंगे और यहाँ के विद्यार्थी लाखों खर्च करके कोचिंग लेते हैं अब कोई सुपर 30 जैसा शिक्षक तो नहीं मिलेगा जो हमें आई आई टी में दाखिला दिलवा दे।“
”अच्छा क्या हमारे लिए भी कोटा नहीं है जिससे कोई विद्यार्थी अपने इलाके के इस बड़े संस्थान में जा सके। नहीं हम सिर्फ अपनी शांत वादियों में ऐसे संस्थानों को ठंडी व स्वच्छ हवा दे सकते है, हम इन्हें सुंदर बर्फ से लदे पहाड़ों का नज़ारा दे सकते हैं। हम इन्हें बर्फीले पानी को उठाए शीशे जैसे साफ़ पानी के नदी नाले झरने दे सकते हैं, हम एक सुरक्षित जगह दे सकते है और इसके बदले ये हमारे भाइयों को चैकीदार बना सकते है और अपनी सुरक्षा के लिए हम देहातियों को एक नई सड़क का तोहफा दे सकते है।
”अच्छा।“
लड़कियाँ ऊँचे पहाड़ की बर्फीली सड़क पर अपने चिंतन को किसी ढांक से नीचे फेंककर अदृश्य हो गई।
— डाॅ संदीप शर्मा