ब्लॉग/परिचर्चा

गरीबी के रंग

 

 

होली पर शोरगुल करती झोंपड़-पट्टी के बच्चों की टोली घूमती-घूमती शहर के ऐसे इलाके में आ पहुंची जहां भव्य सुन्दर कोठीनुमा मकान थे जिनकी बालकनियों और छतों से निरन्तर रंगों की बरसात हो रही थी और रंग-भरे गुब्बारे फेंके जा रहे थे। तरह-तरह की पिचकारियों से रंगों की बौछारों ने खूबसूरत समा बांध दिया था। बच्चों की टोली होली का रंगभरा त्योहार इस पैमाने पर मनाए जाते देखकर ठिठक कर खड़ी हो गई थी।

इतने में राजू ने अपनी जेब से एक पोलीथीन की थैली निकाली और भाग कर कहीं से उसमें पानी भर लाया। फिर उसने उस थैली का मुंह बंद किया और दांतों से हलका-सा काटकर उसमें एक सुराख बनाया। फिर उसने थैली को जोर से दबाया तो उस सुराख में से पानी की फुहार निकल पड़ी जैसे पिचकारी से निकलती है। यह देख बच्चों को मज़ा आया और वे बारी-बारी से एक-दूसरे पर पानी डालने लगे। राजू की इस कारस्तानी पर बच्चों ने कुछ देर खूब आनन्द उठाया। राजू स्वयं को विजेता से कम नहीं समझ रहा था। बच्चे फिर भव्यता की ओर मुखातिब हो चुके थे।

‘अरे वो देखो उजले कुर्ते पर रंगों की बरसात हो गई है, देखते ही देखते उजला कुर्ता रंग-बिरंगा हो गया है’ पिंकी ने साथियों से कहा। संभवतः किसी ने सुना नहीं क्योंकि सभी का ध्यान उस भव्यता की तरफ था जिसे देखकर वे हतप्रभ थे। जब कभी किसी रेलवे-फाटक से कोई रेलगाड़ी दनदनाती हुई निकलती है तो दोनों ओर के वाहन विशालकाय रेलगाड़ी को देखकर सहमे रहते हैं, उसके निकलने का इन्तज़ार करते हैं। रेलगाड़ी के भारी-भरकम शोर में वाहनों के शोर और हार्नों की कोई बिसात नहीं होती बिल्कुल वैसे जैसे किसी नक्कारखाने में तूती की आवाज। और रेलगाड़ी से दुस्साहस मोल लेने का अर्थ होता है जान की बाजी लगाना। ऐसे ही शोरगुल करते बच्चों का शोर उस भव्य शोर में दब गया था। बच्चे भी यह समझ चुके थे और वे खामोशी से सब देख रहे थे।

‘देखो तो कितना रंग उड़ा रहे हैं, एक दूसरे के मुंह चांदी और सोने की तरह चमक रहे हैं’ राजू ने कहा तो पिंकी ने हां में हां मिलाते हुए कहा ‘हां, सच में सोने चांदी की तरह चमक रहे हैं। इनके पास बहुत सारा सोना-चांदी होता है न, मां बताती है। पर पता नहीं हमारे पास क्यों नहीं है? मां कहती है सोना-चांदी अमीरों के पास होता है, हम जैसे गरीबों के पास नहीं। मेरा भी मन करता है कि हमारे पास भी सोना-चांदी हो। बड़े होने पर शायद हम भी अमीर हो जायें और हमें भी मिल जाये।’

पिंकी ने बहुत कुछ कह दिया था पर राजू तो एकटक उस भव्यता की ओर देखे जा रहा था। इस टोली के अन्य साथ पिंकी और राजू से उम्र में छोटे थे। वे तो बस उनके साथ थे बिल्कुल रेलगाड़ी के डिब्बों की तरह, जिधर इंजन ले जाये उधर चले जायें। चाहे आगे जायें या पीछे।

भव्य रूप से खेली जा रही होली का आलम यह था कि उड़ते रंगों और गुलालों में अमीर लोग दिखने ही बंद हो जाते।

‘कितने रंग हैं, लोग ही नज़र नहीं आ रहे, ऐसा लग रहा है कि रंगों के बादल वहां उतर आये हैं और सब पर छा गए हैं’ पिंकी ने इस बार राजू की बांह झटक कर कहा।

अचानक बांह झटके जाने से राजू पल-भर के लिए झल्लाया पर पिंकी की तरफ देखकर बोला ‘सही बात है। पानी से भरे बादल जब बरसते हैं तो धरती पर हर तरफ पानी ही पानी हो जाता है और हमारे तो घर भी भीग कर बरसने लगते हैं। बापू झोंपड़ी में बर्तन रख देते हैं और छत पर फटी तिरपाल डाल देते हैं। मां ने न जाने कितनी बार उस फटी तिरपाल में सिलाई की होगी। पर अब तो लगता है कि सुइयां चुभ-चुभ कर फट चुकी तिरपाल में सिलाई भी कहां रुकती होगी। जिस छेद में से धागा निकल सकता है तो उस छेद से पानी का निकलना क्या मुश्किल है। पानी भी रास्ता निकाल कर फिर झोंपड़ी के अंदर टपकने लगता है। पानी को यह समझ बिल्कुल भी नहीं है कि उसके आने से मां और बापू परेशान हो जाते हैं। उनकी नींद, उनका चैन खत्म हो जाता है। वे तो बस पानी को घुसने से रोकते ही रह जाते हैं। पर पानी को न जाने क्या हो जाता है कि वह रुकता ही नहीं है। और इन कोठियों को तो देखो, यहां तो पानी बाहर से ही फिसल कर नालियों में चला जाता है।’ कह कर कुछ पल के लिए राजू फिर से उस भव्यता में खो गया।

‘कितनी खुशबू आ रही है रंग भरे पानी में से’ राजू ने फिर कहा।

‘हां, वैसी खुशबू आ रही है जैसी बर्फ के गोले वाला भैया जब गोला बनाकर उस पर रंग डालता है, बिल्कुल वैसी’ पिंकी ने कहा।

‘तो क्या हम इस रंगीले पानी को हाथों में इकट्ठा करके पियें तो वैसा ही लगेगा’ राजू ने पूछा।

‘पता नहीं, करके देख लेते हैं’ पिंकी ने कहा।

राजू और पिंकी ने इशारा किया और बच्चे उनके साथ-साथ चल पड़े। क्षण-भर में टोली उस भव्यता से टकराने पहुंच गई। अपने ही हुड़दंग में मस्त अमीरों ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। टोली भी उनके बीच में घुसकर होली के रंगों में मस्ती करने लगी। कुछ देर तक तो बच्चे आनन्द लेते रहे पर यकायक आसपास की कोठियों के तीन चार गार्ड वहां आ पहुंचे और बच्चों को पकड़ लिया। बच्चे घबरा गये, उनकी रंगीन पानी चखने की योजना धरी रह गई और वे उनकी पकड़ से छूटने के लिए छटपटाने लगे। इससे पहले कि बच्चे छूट पाते वहां अमीरों के बच्चे आ पहुंचे और टोली के बच्चों के मुंह को काले चमकीले रंगों से पोत दिया और जोर-जोर से हंसने लगे। टोली के बच्चों को यह अनुमान नहीं था।

बच्चों ने अपने मुंह से रंग छुड़ाने के लिए हाथों से पोंछा तो मुंह का रंग और फैल गया तथा हाथों पर भी रंग लग गया। सहमे हुए बच्चों ने आपस में एक-दूसरे को देखा। अपनी हालत ऐसी हुई देखकर उन्हें दुःख भी हुआ पर यकायक वे हंस पड़े क्योंकि उन्हें यह तो पता ही था कि वे विरोध नहीं कर पायेंगे। टोली के बच्चों को भूत की तरह रंगा देखकर अमीर बच्चे जोर जोर से हंस रहे थे और अपनी कामयाबी पर खुश हो रहे थे। फिर उन्होंने बच्चों पर पिचकारियों से रंगों की बौछार भी कर दी।

टोली के बच्चों ने एक बारगी तो कातर दृष्टि से गार्डों की तरफ देखा मानो मन ही मन कह रहे हों कि हमारे साथ ऐसा क्यों किया पर दूसरे ही पल यह सोचा कि चलो कुछ तो होली का मजा आया। रंगे-पुते हुए टोली के बच्चे जड़वत खड़े थे। उनके कमजोर से भीगे कपड़ों से पानी टपक रहा था और वे थोड़ा-थोड़ा कांपने भी लगे थे। कमजोर कपड़े उनके शरीर से चिपक चुके थे। थोड़ी-थोड़ी देर में वे अपने चिपके हुए कपड़ों को शरीर से दूर कर निचोड़ते। पर कपड़ों को सूखने में समय तो लगना ही था। वे वहीं धूप में बैठ गए। धूप हो या हवा कोई भी अमीर-गरीब में भेद नहीं करती। दोपहरी की धूप में कुछ गरमाहट महसूस होने लगी थी और बच्चों की कम्पन कम होने लगी थी।

उधर उन कोठियों के सामने कुछ मेजें लगा दी गई थीं जिन पर सफेद चादरें बिछाई जा चुकी थीं। देखते ही देखते उन मेजों पर खाने-पीने का सामान सजाया जा चुका था। अमीर लोग अपने घरों से जब दुबारा बाहर निकले तो एकदम नये उजले कपड़ों में थे। उन्हें देखकर टोली के बच्चों ने आपस में एक-दूसरे को गरीब दृष्टि से देखा। कुछ ही देर में एक वयोवृद्ध माता जी वहां आ पहुंचीं। उन्हें अमीरों ने आदर से कुर्सी पर बिठाया और सभी ने उन्हें प्रणाम किया। माता जी ने सभी को आशीर्वाद दिया।

माता जी के समक्ष मिठाई का एक थाल लाया गया। माता जी मिठाई का एक टुकड़ा उठाकर मुंह में डालने को ही थीं कि उनकी निगाह धूप में सूखते बच्चों पर गई।

‘उन बच्चों को यहां लेकर आओ’ माता जी ने कहा तो गार्ड उन्हें फिर से पकड़ लाये। बच्चे फिर घबरा गये थे।

‘डरो नहीं बच्चो’ माता जी ने कहा। फिर माता जी ने परिजनों को आदेश दिया कि इन बच्चों के लिए नये कपड़े लेकर आओ। कुछ ही देर में परिजन उन बच्चों के अन्दाजन माप के मुताबिक नये कपड़े ले आये।

‘ये लो बच्चो, घर जाकर नहा-धोकर नये कपड़े डाल लेना’ माता जी ने बच्चों से यह कहते हुए फिर आदेश दिया ‘बच्चों के लिए मिठाई ले आओ।’

बच्चों के लिए मिठाई आ गई। माता जी ने सभी बच्चों को मिठाई लेने के लिए कहा तो बच्चों ने तुरन्त मिठाई उठा ली। भीगने के बाद ठिठुरने और फिर धूप में सिंकने से बच्चों को भूख लग आई थी। बच्चों ने जैसे ही मिठाई उठाई तो बच्चों को हाथों में लगा रंग मिठाई पर चढ़ गया। वे मिठाई मुंह में डालने ही लगे थे कि माता जी ने एकदम से रोका ‘रुक जाओ, रंग लगी मिठाई मत खाओ’। फिर उन्होंने गार्डों से कहा कि इन बच्चों को कोठी में ले जाओ और इनके हाथों पर लगा रंग अच्छी तरह से छुड़वा दो और इन्हें डिब्बों में भरकर मिठाई दे दो।’

गार्ड उन्हें ले ही जाने लगे थे कि पिंकी ने पूछ लिया ‘बड़ी दादी, आप तो अमीर हैं। होली का रंग तो आप छुड़वा देंगी पर क्या आप हमारी गरीबी का रंग छुड़वा सकती हैं? हमारे मां-बाप न जाने कितनी कोशिश करते हैं पर गरीबी का ये रंग इतना पक्का है कि छूटता ही नहीं है। आप तो अमीर हैं, ऐसा कर सकती हैं न!’

माता जी ने यह सुना तो वह सन्न-सी रह गईं। उन्होंने इधर-उधर परिजनों को देखा जो पार्टी करने में मस्त थे। माता जी की आंखों में आंसू आ गये थे पर इससे पहले कि वे बाहर निकलते उन्होंने आकाश की तरफ सिर उंचा करते हुए देखकर भगवान से प्रार्थना कि ‘हे भगवन! इन बच्चों की सुन लो। इनकी गरीबी का रंग छुड़ा दो। मुझ में ऐसी हिम्मत नहीं है। मैं तो बस प्रार्थना कर सकती हूं।’ यह सुनकर आंसू भी स्वयं को नहीं रोक पाये और वे माता जी के गालों पर लुढ़क पड़े।

सुदर्शन खन्ना

वर्ष 1956 के जून माह में इन्दौर; मध्य प्रदेश में मेरा जन्म हुआ । पाकिस्तान से विस्थापित मेरे स्वर्गवासी पिता श्री कृष्ण कुमार जी खन्ना सरकारी सेवा में कार्यरत थे । मेरी माँ श्रीमती राज रानी खन्ना आज लगभग 82 वर्ष की हैं । मेरे जन्म के बाद पिताजी ने सेवा निवृत्ति लेकर अपने अनुभव पर आधरित निर्णय लेकर ‘मुद्र कला मन्दिर’ संस्थान की स्थापना की जहाँ विद्यार्थियों को हिन्दी-अंग्रेज़ी में टंकण व शाॅर्टहॅण्ड की कला सिखाई जाने लगी । 1962 में दिल्ली स्थानांतरित होने पर मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय से वाणिज्य स्नातक की उपाधि प्राप्त की तथा पिताजी के साथ कार्य में जुड़ गया । कार्य की प्रकृति के कारण अनगिनत विद्वतजनों के सान्निध्य में बहुत कुछ सीखने को मिला । पिताजी ने कार्य में पारंगत होने के लिए कड़ाई से सिखाया जिसके लिए मैं आज भी नत-मस्तक हूँ । विद्वानों की पिताजी के साथ चर्चा होने से वैसी ही विचारधारा बनी । नवभारत टाइम्स में अनेक प्रबुद्धजनों के ब्लाॅग्स पढ़ता हूँ जिनसे प्रेरित होकर मैंने भी ‘सुदर्शन नवयुग’ नामक ब्लाॅग आरंभ कर कुछ लिखने का विचार बनाया है । आशा करता हूँ मेरे सीमित शैक्षिक ज्ञान से अभिप्रेरित रचनाएँ 'जय विजय 'के सम्माननीय लेखकों व पाठकों को पसन्द आयेंगी । Mobile No.9811332632 (Delhi) Email: [email protected]