यादें
यादों के झरोंखो में झांकने लगी आज,
सपनों में खोने लगे झंझावातों भरें राज।
उड़ान भरी, लगाई एक लम्बी सी छलांग,
पहुंची बीते कल में जो था मेरा अभिमान।
सुहाने दिन थे और रातें सपनों में थी कटती,
उंगलियों की कलाकारी दीवारों पर सजती।
इतनी सी इच्छा किसी का दिल न दुख जाए,
फूल हूं इस उपवन का इसे मन से सजाऊं।
कहीं से लौट कर आते, मां को हाल सुनाते,
पिता सुनते ,मुस्काते, मींठी फटकार लगाते।
भय ईर्ष्या संकोच जैसे भाव छू न गये थे,
अभिमान अहंकार किसी के मन में नहीं थे।
मां की डांट कुछ सिखाने के लिए होती थी,
पिता की नजरें ज़मा दिखाने के लिए होती थी।
आज लगता है वह समय लौट क्यो नहीं आता,
परेशानियां अपनी उजागर कोई कर नहींपाता।
हर उम्र में माता पिता जैसे शिक्षक मिल जाते,
परेशानियां कहीं आसपास नजर नहीं आती।
— सीमा मिश्रा