लम्बी कविता – शबरी के राम
जिसके अंतस में ममता का सागर उमड़ा,
जिसके पयोधर में ममता का पयोधर घुमड़ा।
राम! मेरे ओ राम ! राम ! तुम कब आओंगे?
शेष नहीं वयबंध, दरश कब दे जाओंगे?
करती सब प्रबंध कुटीर वह नित्य बुहारें,
राम मिलन की आश पथिक की राह निहारें।
मुख मुद्रा पर आस भरी उत्सुकता मन में,
आएगे मेरे राम हरेगे संकट वन में।
राम -भक्त शबरी की पावन कहूँ कहानी,
राम-तपस्विनी ‘श्रमणा’ ही थी राम दीवानी।
शबर वंश ले जन्म नाम शबरी था पाया,
पिता शबर नरेश सुखद बचपन बिताया।
पर, शैशव से राम भक्ति अंतस पर छायी,
करती तप कठोर राम धुन सुधी बिसरायी।
बढ़ती जाती उम्र, भक्ति भी बढ़ती जाती,
रामार्चना में शबरी दिन-रात बिताती,
चुनूँ कौनसी राह राम में तुमको पाऊँ?
मूढ़,दीन, मतिहीन समझ मैं, कुछ न पाऊँ।
नम्र सजल नेत्रों से शबरी सोच विचारे,
कब आएगे राम अकिंचन के गेह द्वारे?
बढ़ती जाती वय पिता की चिंता बढ़ती,
यौवन खिलता देख विवाह की चिंता खलती।
मिले सुखद वर,धाम,उच्च कुल वास सुता को,
नेह भरा परिवार, मिले यह चाह पिता को।
सफल पिता की चाह सुअवसर शुभदिन आया,
परम सहासी वीर योद्धा , संग नाम मिलाया।
वैभव से परिपूर्ण सभी जन आन मिले थे,
करने कन्यादान परिजन सभी तुले थे।
जल,थल, वायु बीच बात हर ओर सुनाई
नृप शबर की सुता श्रमणा की शुभ घड़ी आई।
शबर वंश अनुरूप बलि की रीत निभाने,
कुल देवी के समक्ष लहू की भेंट चढ़ाने।
कई तरह के जीव पशु-पक्षी कई सारे,
बाँध दिया थे आज काल के गेह के द्वारे।
भैंसे,बकरे,हरिण,भेड़ के झुंड खड़े थे,
ताक रहे भू ओर मौत भय नेत्र भरे थे।
आह! प्राण पा प्राण हर्ष उन्माद भरेगा,
एक वंश हितार्थ कई का वंश मिटेगा।
चढ़ा देवी को लहू शबर कुल मान बढ़ेगा,
काट काट कर अंग मांस कुल बीच बटेगा।
दहक रही कृपाण रक्त की बढ़ी पिपासा,
मौन खड़े सब जीव त्याग प्राणों की आसा।
देख पशु के झुंड श्रमणा खड़ी विचारे,
भला सुमंगल आज बंधे क्यों पशु ये द्वारे।
गई पिता के पास भरी जिज्ञासा मन में,
बंधे जीव क्यों आज,हर्ष क्यों है जन-जन में?
सुनी सुता की बात पिता मन में हर्षाया,
कुल देवी की भेंट वंश का धर्म बताया।
आह! पिता यह धर्म भला कैसा है कुल का,
विवाह सुमंगल कर्म हरे यह प्राण निश्छल का।
आह! यह कैसा अजब- गजब संयोग रचा है?
आज विवाह सुख योग मौत का खेल मचा है।
आह! छली में आज विवाह का नाम लिया है,
निज रसना का स्वाद , भेंट का नाम दिया है।
चीख रही है वधू अश्रु की धार बही है,
उलझ रही मन तरंग देह अंगार दही है।
कहा पिता से जाये पिता धिक्कार तुम्हे है,
कटे कई निपराध,हृदय यह नहीं सहे है।
चटक रही है त्वचा कलेजा फूट रहा है,
टूट रहा उर आज, लगे कोई लूट रहा है।
रूकी धरा यह जान,पाप का भार सहे न,
गई धुरी को छोड़,डरी कुछ आज कहे न।
रक्त झरे घन झुंड, लगे उर आज कटा है,
टपक रही लहू बूंद व्योम का हृदय फटा है।
क्षमा- क्षमा हे जनक! नहीं मंजूर मुझे यह
नहीं मिले सुख भाग रक्त निपराध बुझे यह।
कटे मिटे निर्दोषी , भला कैसे सह पाऊँ?
रक्त रंगे हो हाथ, महावर खून सजाँऊ।
कर निर्णय मन बीच श्रमणा त्याग गेह को,
बचा गई निर्दोष जीव की कई देह को।
निविड़ तिमिर घनघोर बीच कानन में आई,
दंडकारण्य बीच कुटीर ली जाये बनाई।
ऋषि-मुनि तपशील असंख्य थे वन वन में,
सोच रही चुपचाप , रहे कैसे कानन में?
भील वंश कुलहीन शबर लघु जात है मेरी,
भला करे स्वीकार संत, न किस्मत मेरी,
मन में करे विचार , करूँ सुकर्म पुण्य का,
ऋषि-मुनि की सेव्य बनूँ यह कर्म गण्य का।
पावन हृदय पवित्र , सुकोमल देह सुचिता,
करें नित्य उठ भोर कर्म, नित परम पुनीता।
चले ऋषिगण जिधर, उधर की राह बुहारें,
कंकड़ पत्थर हटा ऋषियों की राह निहारें।
कभी बटोरे समिधा ऋषि कुटिया भर आये,
कभी नदी के बीच पड़े पाषाण हटाये।
करे शबरी नित कर्म देख न कोई पाये,
गुप्त रहे हर कर्म धर्म की रीत निभाये।
दिवस एक सुख भाग शबरी का उत्तम आया,
देख लिया ऋषि मतंग शबरी को पास बुलाया।
दिया ऋषि ने गेह सुता कह कर अपनाया,
जीवन का उद्देश्य भक्ति का मार्ग दिखाया।
लिया ऋषि से मंत्र शबरी नित ध्यान लगाये,
चले भक्ति की राह , करे जो कर्म बताये।
गये दिवस कई बीत ऋषि मरणासन्न आये,
विरह वियोगी शबरी को सब मर्म बताये।
त्याग मेरी सब चिंता राम का चिंतन करना,
आएगे प्रभू राम, सुता तू धीरज धरना।
राम सदा निष्काम निर्लिप्त है हीन भाव से,
ऊँच नीच से रहित भरे है दीन भाव से।
नहीं राम को चाह , भरे वैभव से तन की,
अंतर का हो नेह राम को चाह है मन की।
दिया गुरु उपदेश भीलनी ध्येय बनाया,
राम मिलन की आस गुरु जो मंत्र बताया।
स्नेह सिक्त उदार भिलनी परम पुनीता,
परम तपस्विनी देह, गेह में परम शुचिता।
गुरु धाम के पास सरोवर पम्पासर था,
निर्बल देह का भार दूर भिलनी का घर था।
गई झील के पास झील घट आन डुबाया,
उच्च वंश कुल नार , देख कर दूर भगाया।
नीच,दुष्ट, मतिमार, लघु, कुलहीन अभागी,
ऊँच नीच भय छोड़, दुष्ट मर्यादा त्यागी।
उठा तीक्ष्ण पाषाण, वृद्धा की ओर उछाला,
लगी पैर में चोट फूट गया रक्तिम छाला।
गिरी लहू की बूंद झील के निर्मल जल में
बदल गयी वह झील तुरंत ही रक्तिम मल में।
मची भयंकर त्रास , विकल सारे वनवासी,
धरा जीव सब विकल,विकल सब धरती वासी
किये कई उपाये सरोवर फिर हो निर्मल,
गये हार हर बार बदल, नहीं पाया था जल।
अजब- गजब संयोग, दंड वन राम पधारें,
हरे कष्ट भव त्रास ,गये सब संतन द्वारे।
सुना, शबरी ने आज राम वन बीच पधारें
हुये वचन सब पूर्ण मुनि जो कहे सिधारें।
राम दरश को विकल नयन भर उठकर दौड़ी,
रोक लिया पथ बीच हाय किस्मत गई फौड़ी।
देव,हाय ओ देव! अभागिन आज बड़ी मैं,
किससे कहूँ कलेश, अकेली राह खड़ी मैं।
मिला नीच घर जन्म ,विधि संताप दिया क्यों?
आह! घात पर घात ,प्राण से दूर किया क्यों?
पड़ी पंथ के बीच शबरी, सुध भूल गई सब,
राम दरश की आस, प्राण भी गले पड़े अब।
उठी बढ़ी गेह ओर विकल उश्वास भरी है,
चली सरोवर तीर ,उड़ी रज नीर गिरी है।
हुआ विस्मय चहुँओर ,नीर निर्मल जब देखा,
दौड़ पड़े सब लोग , मिटा लघुता की रेखा
राम हुए अभिभूत ,सुनी शबरी की गाथा,
टपक पड़े द्वय नेत्र, स्वेद भर आया माथा।
हृदय उमंगित लहर प्रेम सागर में उमड़ी,
नेत्र हुए घन रूप ,घटा उर आंगन घुमड़ी।
बोले गदगद् कंठ मात के दरश कराओ,
धरे न धीरज राम, मात से राम मिलाओं।
चले राम ले संग ,अनुज, ऋषि शबरी द्वारे,
सोच रहे मुनि वृंद , अचंभित होकर सारे,
कहाँ अवध सुकुमार, नृप दशरथ के जाये,
कहाँ शबर लघुजात, शुद्र कुल से है आये।
उचितानुचित का भेद राम को ध्यान नहीं क्या?
देव रूप में राम, स्वयं का भान नहीं क्या?
उधर शबरी के गेह, नेह उल्लास भरा है,
मन विचलित घट नेह,नयन से मेह झरा है।
आएगे मेरे राम, द्वार कई बार बुहारे,
बैठ गई पथ बीच, पंथ निर्निमेष निहारे।
आज अकिंचन द्वार, जगतपति राम पधारें,
करूँ आज मनुहार, भेंट प्रारब्ध कर सारे।
दिवस रहा था बीत, साँझ बैला चढ़ आई,
टपक रहे द्वय नयन,राम ने सुधि बिसराई।
राम,राम, हे राम! राम की शरण गही है
शिथिल हुए सब गात,स्नेह की धार बही है
तभी सुनि पदचाप,विकल हरिणी सी जागी,
उठी विह्वल भर नयन,राम से मिलने भागी।
पड़ी चरण के बीच,नयन जल चरण पखारे,
जन्म-जन्म का पुण्य,नाथ जो आप पधारें।
हुआ जन्म कृतार्थ,आस अब बची न मन में,
चलों प्राण ले साथ,चाह अब रही न तन में।
झुके जगत के नाथ शबरी भर बाँह उठाया,
गये कुटी में राम , बैठ निज पास बिठाया।
सोच रही लघुजात , नाथ को भोग लगाँऊ,
नहीं पास में अन्न , नाथ को पका खिलाँऊ।
गई कुटी में जान , कुछेक फल बेर पड़े है,
कुछेक दिवस की बात ,झाड़ से स्वयं झड़े है।
भर आँचल के बीच ,बैठ गई माँ सम शबरी,
खिला रही फल बेर ,चखे फिर देती शबरी।
प्रेम पुलक भर नयन , ताकती जाती शबरी,
धन्य धन्य रे आज , धन्य तू भीलनी शबरी।
भर माटी घट नीर , प्रेममय नीर पिलाती,
चख-चख सारे बेर, राम को आज खिलाती।
कभी लखन को ताक , प्रेम भर हाथ बढ़ाती,
कभी राम को ताक, अश्रु जल चरण धुलाती।
दिए लखन ने फैक, सोच झूठन क्यों खाँऊ,
यह शबरी लघुजात, बेर खा कलंक लगाँऊ।
सोच रहे मन राम , लखन ये प्रेम सनेगे,
आज किया उपहास , बेर ये प्राण बनेगे।
राम दिया उपदेश ,मोक्ष की राह सुझायी,
मिले जगत को स्वर्ग ,भक्ति नवधा बतायी।
उठे विदा ले राम , चले कानन में आगे,
मिले शबरी के राम ,शबरी के प्रारब्ध जागे।।
— हेमराज सिंह ‘हेम’