नारायणी
मैं लक्ष्मी , मैं सरस्वती,
मैं ही रुद्र काली हूँ,
मैं ममता की देवी,
मैं ही संहार करने वाली हूँ।
हाथों में चूड़ी, माथे बिंदिया,
कानों में कुंडल डाली हूँ।
सजधज के निकली घर से,
गरबा खेलने आई हूँ।
साल भर चूल्हा चौका,
घर बार संभाला करती हूँ,
यह नौ दिन ही बस मेरे हैं।
मैं इसमें धूम मचाती हूँ,
तलवारकी जगह डांडिया है।
पर इसकी ताकत कम नहीं,
मेरी आँखों में ज्वाला है।
अब मेरी आँखें। नम नहीं,
अब मेरी आँखें नम नहीं।
— प्रमिला ‘किरण’