लघुकथा

जबाब

बहुत दिनों बाद आज अपनी एक बचपन की सखी के घर जाना हुआ।वो कुछ दिन पहले ही नए घर में शिफ्ट हुई थी और मुझे बार बार शिकायत कर रही थी कि तू मेरा घर देखने नहीं आई। बहुत दिनों बाद प्रोग्राम बनाते बनाते आखिर आज मैं पहुंच ही गयी उसके घर। घर तो उसका वाकई में बहुत ही सुंदर था।बिल्कुल फाइव स्टार होटल लग रहा था। हर चीज एक से बढ़कर एक। घर क्या वो तो एक बंगला ही लग रहा था। इंटीरियर भी बहुत बढ़िया करवाया हुआ था। हालांकि उसका पहले वाला घर भी बहुत सुंदर था। उसमें मुझे कभी कोई कमी नहीं लगी थी। खैर उसने मुझे पूरा घर दिखाया और पूछा कैसा लगा।अब जो चीज अच्छी हो तो उसको तो अच्छी ही कहेंगे। मैंने भी दिल से तारीफ की और कहा कि मुझे बहुत अच्छा लगा तेरा घर।

फिर उसने मुझसे पूछा..”सच सच बताना कि तुम्हें इस घर में ज्यादा अच्छा लग रहा है या उस घर (पहले वाले) में ज्यादा अच्छा लगता था?”

तो मैंने उसको ये जवाब दिया…”मेरे लिए इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि घर कौन सा है। मेरे लिए ये बात ज्यादा महत्वपूर्ण है कि जिसके साथ मैं बैठी हूँ वो इंसान कैसा है। घर चाहे दो सौ गज का हो या पांच सौ गज का।अगर सामने वाला मेरे दिल की गहराईयों से मेरे साथ जुड़ा हुआ है और मेरा अति प्रिय इंसान है तो मैं उसके साथ जमीन पर बैठकर भी खुश हो लूंगी। अगर वो मेरा खास अपना है तो मैं उसके साथ सड़क पर बैठकर भी एन्जॉय कर लूंगी।”

मेरा जबाब सुनकर वो एकदम निरुत्तर हो गयी और मेरे चेहरे की तरफ देखने लगी।

— रीटा मक्कड़