मेरे गांव में
रोज सूरज उगता था
एक जैसा…
परन्तु आज अलग उगा है
जिसमें कोई आकर्षण नहीं
नजर आ रहा है फीका-फीका सा
जो कल तक चलती थी शीतल मंद-मंद हवा मेरे गांव में,
वो आज हो गई है बेहद जहरीली ।
कल हुए दंगों ने मेरे गांव में
फैला दी है शमशानों सी काट खाने वाली शैतानी खामोशी
सब कुछ थमा-थमा सा लग रहा है ।
देर रात तक सरकारी बूटों की आवाजों ने
भोले भाले मेरे गांव के लोगों के हृदय की गति को बढ़ा दिया है
डर के मारे दुबके पड़े हैं घरों की चारदीवारी में…
उन्हें सता रहा है कानूनी कार्रवाई का ड़र क्योंकि, लगेगा गेहूं के साथ बथुए को पानी
मुट्ठीभर दबंगों ने छीन ली मेरे गांव की शांति
कुछ लोगों को डर था कि अब ढ़ह जायेगा उनकी बेईमान राजनीति का किला
और इसी ड़र में झोंक दिया मेरा गांव दंगों की भट्टी में…
अब पता नहीं कब तक चलेंगी जहरीली हवायें मेरे गांव में,
यही सोचकर चीत्कार रही है मेरी आत्मा…
— मुकेश कुमार ऋषि वर्मा