गीत
जिसे बसंती उपवन समझा, वो तो निकला मरुथल कानन ।
कीकर ,नागफनी, काँटे हैं, नजरों की सीमा तक निर्जन ।
मैं प्यासे मृग जैसा भागा ।
जानें कितनी रातें जागा।
ठगा गया मैं मृगतृष्णा में ,
हाय समय तू ! बीत अभागा!
कैसी गणना की थी मैंने ? ,जेठ बन गया मेरा सावन ।
कीकर ,नागफनी,……………………………
क्यों मेरे पैरों में बंधन ?
क्यों कोई चर रहा हरा वन ?
हम तरसे छटांक भर खातिर,
कोई बाँधे है गठरी मन ।
जब सबकी उत्पत्ति एक है ,फिर आखिर क्यों सौतेलापन?
कीकर नागफनी, ………………………….
कैसा तुझको अहंकार है ?
तेरा जीवन घड़ी चार है ।
बड़े बड़े दिग्गज ढह जाते,
काल अगर करता प्रहार है।
मत शापों का संग्रह कर तू ! जल जायेगा पाप हुतासन।
कीकर नागफनी काँटे ……………………….
© डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी