गीत
सूख चुके अधरों से ,मधुर गीत क्या गाऊँ ?
काल नग्न नाच रहा ,शोक है , विलाप है ।
हर तरफ से सिर्फ शोक समाचार मिलते हैं।
सूरज के साथ रोज मृत्युदूत खिलते हैं ।
किसको मैं ढाँढस दूँ, किसको मैं समझाऊँ,
जगती भयभीत हुई कैसा अभिशाप है ?
सूख चुके अधरोंं……….
गाँव-गाँव नगर-नगर हाय करुण क्रंदन है ।
रौंद रहाँ साँसों को मृत्यु का स्यंदन हैं ।
देख देख सोंच रहा, कैसे मैं बतलाऊँ
अंतस को जला रहा ,पीड़ा का ताप है ।
सूख चुके अधरों………………….
त्राहि त्राहि कर रहें हैं, मानव बेचारे हैं।
लघुतम रोगाणु, बड़े अविष्कार हारे हैं।
नाथ! अब सहाय करो,किस दर को मैं जाऊँ?
क्षमा करो दीनबंधु , जो जग का पाप है।
सूख चुके अधरों………………
——-डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी