पल बदलते हैं
पल बदलते हैं , संवत बदलते हैं और मन्वंतर बदलते हैं
इंसान वही रहता है खुद को खोजता हुआ
बाहर सब विलक्षण है आकर्षक , सम्मोहक
तृष्णा, मृगमरीचिकाओं को बढ़ाता है
‘मैं’ से नहीं जब पा सके हैं मुक्ति अब तक
मोह, मन में सागर सा घहराता है
कुछ तो बदलें पारंपरिक प्रवृत्तियों को
‘मैं’ से ‘हम’ की ओर यदि मुड सकें तो
सामूहिक समन्वित आनंदानुभूति होगी
सरोरुह खिल उठेंगे शांति और संतोष के
जीवन में नया सूरज उगेगा
सौरर्भित वे नई किरने , जो आएंगी लेकर
आगंतुक क्षणों में नव प्रकाश
आइये मिलकर मनाएँ यह नया वर्ष
जिसमें हो उल्हास ,, सुख, शांति हर्ष