ग़ज़ल
ख़ामोश सुब्ह के मंज़र हैं शाम ख़ामोशी,
हर एक रास्ता हर इक मक़ाम ख़ामोशी ।
ख़बर किसे थी कि ऐसा भी वक़्त आएगा,
करेगी ज़ीस्त का जीना हराम ख़ामोशी ।
न जाने कौन सी मंज़िल पे जा के ठहरेगी
फ़िज़ा में तैरती ये बे लगाम ख़ामोशी।
हमारे क़ल्ब के सुनसान एक गोशे ने,
रखा है चीख़ती आहों का नाम ख़ामोशी।
ख़ुदा के वास्ते अब तो मुआफ़ कर आख़िर
किया है सबने तेरा एहतराम ख़ामोशी।
ये वक़्त आने पे देखेंगे कौन जीता है,
छिड़ी है जंग तकल्लुम बनाम ख़ामोशी।
जवाब फ़र्ज़ है देना ये बात सुनते ही,
शिखा ने भेजा है तुझको सलाम ख़ामोशी।
— दीपशिखा सागर