ग़ज़ल
मेरी बेचैनियाँ बढ़ाता है
मेरे ख़्वाबों में जब वो आता है
कैसे आँखों में उसके पढ़ लूँ मैं ,
मुझसे वो आँख कब मिलाता है ।
उसकी आदत ही बन गयी है ये
मुझको हर बात पर रुलाता है
बात दिल की करें भला कैसे
वो न सुनता न ही सुनाता है।
पैरवी क्यूँ मैं उसकी करती हूँ
मुझसे हर बात जो छुपाता है
उलझनें मेरी अब बढ़ाकर वो
मन ही मन ख़ुद तो मुस्कराता है ।
देख बेचैन मुझको रातों में।
चाँद आँगन से झाँक जाता है।