ग़ज़ल
हाय ये कैसा समय है आदमी अब, काल के मुँह की मिठाई हो गये हैं।
महामारी मौत का अंधड़ बनी तो, कई बरगद धराशायी हो गये हैं ।
कुछ व्यवस्थाओं की बलिवेदी चड़े तो,कु छ बेचारे चौखटें न लाँघ पाये,
मौत उनको भी लगेगी हाय बनकर, जो प्रशासन के जमाई हो गये हैं।
करूण क्रंदन ,आँसुओं के बीच में भी, देश में मतदान का उत्सव सजा है,
हाय! जिम्मेवार हैं चुपचाप सारे, तंत्र में सब रक्तपाई हो गये हैं।
हर सुबह खुलता पुलिंदा मौत वाला, कई चेहरे याद बनकर सिमट जाते,
शोक की खबरें नये आघात करतीं, कान अब मानों निहाई हो गये हैं।
घरों में हैं कैद हम कटकर जड़ो से, पड़ गई छोटी मदद खातिर भुजाएँ,
महामारी ने हमें ऐसा किया है, लग रहा हम बोनसाई हो गये है ।
— डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी