फूलों से लदे
हरे-भरे नीम की महक
दे जाती है मन को सुकून
भले ही नीम कड़वा हो |
पेड़ पर आई जवानी
चिलचिलाती धूप से
कभी ढलती नहीं
बल्कि खिल जाती है
लगता,जैसे नीम ने
बांध रखा हो सेहरा |
पक्षी कलरव करते पेड़ पर
ठंडी छाँव तले राहगीर
लेते एक पल के लिए ठहराव
लगता जैसे प्रतीक्षालय हो नीम |
निरोगी काया के लिए
इन्सान क्यों नहीं जाता
नीम की शरण
बेखबर नीम तो प्रतीक्षा कर रहा
निबोलियों के आने की
उसे तो देना है पक्षियों को
कच्ची -कडवी,पक्की मीठी
निबोलियों का उपहार |
— संजय वर्मा “दॄष्टि “