मुक्तक ( प्रेम)
प्रेम कान्हा की मुरली का मधुरिम स्वर है
पी गयी गरल मीरा ये प्रेम का ही असर है
प्रेम की नाव पर हो सवार तर गयी गोपियाँ
प्रेम काटों की नहीं फूलों से सजी डगर है
प्रेम चांद की शीतलता का अनुभव है
प्रेम पुष्प की मोहित करती हुई रव है
प्रेम को कोई क्या बांध सका जगत में
प्रेम हृदय का अवलनीय नीरव है
प्रेम हृदय में फूलों का उपवन है
भावनाओं की सृष्टि का गगन है
प्रेम सजन की सांसों की गहराई
प्रेम दो तन में एक उन्मुक्त मन है
— आर शर्मा (आरू)