तक़दीर
जिन्हें ढूंढती रही उसे पा न सकी
आओ बैठ लें कुछ देर साथ
अभी तक तफ़सीर भी ना कर सकी
दूरियां ऐसा ना हो मौन भाषा बन जाए
मुश्किल घड़ी आती गुजर भी जाती है
गुजारिश है तकबीर में आ जाए
जो होना है होने दो
राह में अड़चनें आती हैं
विश्वास हमारा अगर अटल है
तकदीर भी बदल सकती है
मुमकिन है कि मंजिल में
नाकामी ही मिले
कड़ी से कड़ी जोड़कर
जब जंजीर बन जाता है
पत्थर भी सँवर सकता है
जब तरीके से तराशा जाये
अपने तहरीर से इंसान
भी जाना जाता है
सिर्फ सोच बदलनी है सबकुछ हासिल करेंगे
रब कुछ और भी बेहतर सोचा हो
अपने तकदीर से मिलकर तदबीर करेंगे
— ममता सिंह