कविता

नींद

एक    लक्ष्य   जो   छूट   गया,
एक    सपना   जो   टूट  गया।
एक चाहत  जो  मिल ना पायी,
एक इच्छा  जो  कह  ना पायी।
एक  रास्ता   जो   पलट   गया,
एक  फूल   जो   सिमट   गया।
सब है अधूरे,फिर  भी  होते पूरे,
उड़ते   हैं  अपने   पंख   पसार,
आशाओं  का  करके  विस्तार।
वो     अनुपम     दिव्य    लोक,
जड़ चेतन का  करके  बिलोप।
करे     पूर्ण      सभी    उम्मीद,
हां   है   वो    सब    की   नींद।
कोई रोक नहीं  कोई टोक  नहीं,
किसी झूठे  सच की  ओट नहीं,
अभिलाषा का अपना ही गगन,
जीते  हम  जीवन  होके  मगन।
जो  मिली   घुटन  चेतन   रहके,
होता    विद्रोह   अवचेतन    से,
कर्तव्यों   का   बस  बोध   नहीं,
अधिकार का पाठ  भी पढ़ते हैं।
मिलता   सारा   जो   छूट  गया,
अरमान जो  काल  तू  लूट गया,
वो सब मुझे रोज  ही  मिलता है,
मन   हो   स्वच्छंद   विचरता  है,
मिलता प्रतिदिन एक  नया गीत,
सबकी नींद हां वो सब की नींद।

— महिमा तिवारी

महिमा तिवारी

नवोदित गीतकार कवयित्री व शिक्षिका, स्वतंत्र लेखिका व स्तम्भकार, प्रा0वि0- पोखर भिंडा नवीन, वि0ख0-रामपुर कारखाना, देवरिया,उ0प्र0