लघुकथा

मसीहा

 बोरे से बनी झुग्गी से बाहर झाँकते हुए उस वृद्धा की नजर दूर तक फैली सूनसान सड़क से टकराकर वापस लौट आती और भूख से उसकी अंतड़ियाँ और जोर से कुलबुला उठती। नजदीक ही जमीन पर पेट दबाकर सोए दोनों मासूम बच्चों को देखकर उसकी वेदना और बढ़ जाती।
शहर में कई दिनों से लॉक डाउन लगा हुआ था। उसकी बहू परबतिया इन दिनों शहर के मुख्य चौराहे पर जाकर वहाँ भोजन बाँटनेवालों से भोजन लेकर आती और उसी भोजन में से सभी थोड़ा थोड़ा खाकर उन भोजन बाँटनेवालों को ढेरों आशीर्वाद देते।
कुछ देर बाद उसकी बहू आई, लेकिन उसके हाथ खाली और आँखें आँसुओं से भरी हुई थीं।
किसी मनहूस खबर की आशंका से अपने आपको मजबूत करती हुई वृद्धा ने बहू से पूछा, ” क्या हुआ बहू ? लगता है भोजन नहीं मिला….तो इसके लिए रोना क्यों ?”
” अम्मा ! मैं इसलिए नहीं रो रही हूँ कि मुझे आज भोजन नहीं मिला। मैं तो यह जानकर रो रही हूँ कि शहर के मुख्य चौराहे पर आकर जो मसीहा रोज भूखों को भोजन कराता था आज पुलिस ने उसे लॉकडाउन का उल्लंघन करने के आरोप में गिरफ्तार करके जेल भेज दिया है। अब तो हमारी सारी उम्मीदें ही खत्म हो गईं अम्मा जी ! ….इसीलिए मेरे आँसू बह निकले ! इस देश में क्या कोई अच्छा काम करना वाकई गुनाह है अम्मा जी ?” कहते हुए बहू जोर से फफक पड़ी थी।
” पता नहीं बहू ! बड़े लोगों की बातें बड़े ही जानें। मैं तो इतना ही जानती हूँ कि कुछ पौधों की जड़ें जमने से पहले ही उन्हें उखाड़ दिया जाता है। ये गरीबों के हमदर्द भी इन्हीं पौधों की श्रेणी में आते हैं !”

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।