कविता

परशुराम की उदारता

प्रसंग – परशुराम-भीष्म संग्राम।
रथ पर सवार गंगापुत्र भीष्म जब समरभुमि में भगवान परशुराम को बिना रथ, बिना कवच के ही युद्ध के लिए प्रस्तुत देखते हैं तो वो महर्षि परशुराम से रथ पर आने और कवच धारण करने का निवेदन करते हैं।
तब परशुराम जी कहते हैं-
अखिल धरा ही रथ ये मेरा
पवन अश्व इस रथ के।
हुआ सारथि वेग विलक्षण
समर भुमि में नथ के॥
हे कुरुनंदन ! शोक करो मत
विरथ जान ब्रह्मण को।
उद्वेलित कर सकता क्षण में
सृष्टि के कण कण को॥
वेदमातु गायत्री, शारदा
पार्वती हितकारी।
कवच तीन मेरे अभेद्य ये
हर आयुध पर भारी॥
हे कुरुकेतु ! समर भूमि में
शस्त्र नहीं लड़़ते हैं।
पौरुष और साहस ही अंतिम
विजय वरण करते हैं॥
सुन भार्गव के वचन भीष्म भी
रथ से नीचे आए।
अपने गुरू के श्रीचरणों में
श्रद्धा से शीश नवाए॥
बोले – गुरूवर, युद्ध आपसे
मेरा मंतव्य नहीं है।
आपकी आज्ञा शिरोधार्य
मेरा कर्तव्य यही है॥
श्रीचरणों में नमन दास का
प्रभु करें स्वीकार।
देकर आशीर्वाद विजय का
करें प्रभु उपकार॥
विनय देख महावीर भीष्म का
परशुधर हुए विभोर।
बोले – आशीर्वाद गुरू का
सदा शिष्य की ओर॥
जाओ गंगापुत्र समर में
युद्धप्राण सज्जित हो।
ऐसे करना युद्ध तुम्हारा
गुरू नहीं लज्जित हो॥
शत्रु को वरदान विजय का
कहो कौन दिया करता है।
ऐसा हृदय  विशाल वक्ष में
इक ब्राह्मण ही धरता है॥

— समर नाथ मिश्र

One thought on “परशुराम की उदारता

  • डाॅ विजय कुमार सिंघल

    जय परशुराम !

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