ग़ज़ल
ना मुक़म्मल क़रार जैसा था
उसका ग़ुस्सा भी प्यार जैसा था।
आँखों आँखों में रात गुज़री थी,
वस्ल भी इंतज़ार जैसा था ।
लब हिलें तो गुलों की बारिश हो,
नर्म लहजा बहार जैसा था।
मैं भी दरिया की मौज थी वो भी,
वक़्त की तेज़ धार जैसा था।
कोई रस्ता न कोई मंज़िल थी,
हर तरफ़ इक ग़ुबार जैसा था।
क्या बताऊँ ये खेल चाहत का,
जीत जैसा न हार जैसा था।
कितनी खूबी थीं एक इंसां में,
एक होकर हज़ार जैसा था।
जब वो रुख़सत हुआ था महफ़िल से,
दिल पे वो लम्हा बार जैसा था।
उसकी ग़ज़लें ‘शिखा’ सुनहरी थी,
हाँ वो शायर सुनार जैसा था।
— दीपशिखा सागर