कविता

तू भारत वर्ष की नारी है

रुकना ना कभी झुकना ना कभी
कलकल बहते चश्मे की तरह
थमना ना कभी बढ़ती रहना
जीवनदायी वायु की तरह
तू कर्म किए जा ऐसे कि
जग में तेरा अभिमान बढ़े
 सब हित मित्र और गाँव पुर
संग देश का भी सम्मान बढ़े
तेरे कर्मों से जग महके
तू जीवन की फुलवारी है
अबला है नहीं तू सबला है
तू भारत वर्ष की नारी है
नहीं रहा बचा अब क्षेत्र कोई
तू जहाँ है अब मौजूद नहीं
तेरे बिन दुनिया मान चुकी
है सृष्टि का भी वजूद नहीं
उत्तुंग गगन उन्मुक्त विचर
गुड्डी सम पर तू नहीं बिसर
रहती बंधकर मर्यादा में
वही गुड्डी छूती उच्च शिखर
जब तलक बंधी गुड्डी धागे से
नभ में वह इठलाती है
खुद हर्षित हो, अपनों को भी
गर्वित महसूस कराती है
धागे से कटकर के गुड्डी
कब तलक हवा में उड़ती है
कुछ पल लहरा कर आखिर में
वह धरती पर गिर पड़ती है
सभ्यता संस्कृति के धागे से
 तुम हरदम बंध के रहना
पहचान यही है विशिष्ट तुम्हारी
सबसे सुंदर है यह गहना
 तू  त्याग, समर्पण की मूरत
जाने ये दुनिया सारी है
अबला है नहीं, तू सबला है
तू भारत वर्ष की नारी है

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।