विश्व को वेदों से मिला आत्मा की अमरता व पुनर्जन्म का सिद्धान्त
ओ३म्
मनुष्य जीवन का उद्देश्य ज्ञान की प्राप्ति कर सत्य व असत्य को जानना, असत्य को छोड़ना, सत्य को स्वीकार करना व उसे अपने आचरण में लाना है। सबसे पहला कार्य जो मनुष्य को करना है वह स्वयं को व इस संसार को अधिक सूक्ष्मता से न सही, सार रूप में जानना तो है ही। हम क्या हैं, कौन हैं, हमारा जन्म क्यों हुआ, हमारे जन्म व जीवन का उद्देश्य क्या है, क्या हम जड़ शरीर मात्र हैं या इसमें जो चेतन तत्व प्रकाशित हो रहा है वह शरीर से भिन्न पदार्थ वा तत्व है? यह सभी प्रश्न सामान्य प्रश्न हैं जिन्हें किसी विद्वान के प्रवचन, उनसे शंका समाधान, किसी लेख व पुस्तक को पढ़कर जाना व समझा जा सकता है। इसके बाद हमें इस संसार को भी जानना है। यह संसार क्या है, यह कैसे बना, इसका बनाने वाला कोई है या नहीं? यदि है तो कौन है? यदि नहीं है तो फिर अपने आप यह संसार कैसे बन गया? यदि इस प्रश्न का सन्तोषजनक उत्तर नहीं मिलता, जो कि अभी तक नहीं मिला है, तो फिर हमें दूसरे उत्तर कि यह किसी निमित्त कारण चेतन सत्ता जो सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान है, उसकी कृति है, इस मान्यता व सिद्धान्त को मानना चाहिये। इन सभी प्रश्नों के उत्तर भी किसी विद्वान के उपदेश, उनसे शंका समाधान व फिर किसी सत्यज्ञान से युक्त लेख वा पुस्तक को पढ़कर जाने जा सकते हैं। हम समाज में देख रहे हैं कि आज की पढ़ी लिखी युवा पीढ़ी और अन्य पढ़े लिखे वृद्ध मनुष्यों को भी इन प्रश्नों के सही उत्तर ज्ञात नहीं है। यदि हम प्रमुख मत-मतान्तरों पर दृष्टि डालें तो वहा भी इन प्रश्नों के प्रमाण, तर्क व युक्तिसंगत निश्चयात्मक उत्तर प्राप्त नहीं होते। इनके उत्तर वेद, दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति आदि अनेक ग्रन्थों में हैं परन्तु लोग इन ग्रन्थों के प्रति अपनी अविवेकपूर्ण मान्यताओं के कारण इनका महत्व न जानने के कारण पढ़ते नहीं हैं। अतः एक अन्य महत्वपूर्ण ग्रन्थ जिसमें वेद, दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति व अन्य सभी शास्त्रों का सार है व मनुष्य के मन में उत्पन्न होने वाले सभी प्रश्नों के सत्य, प्रमाण, तर्क व युक्ति सम्मत उत्तर दिये गये हैं, वह ऋषि दयानन्द की रचना ‘सत्यार्थ-प्रकाश’ है। उसे यदि हम अपने ज्ञान व बुद्धि के द्वारा तर्क व विवेचन सहित पढ़ें तो हमें उपर्युक्त सभी प्रश्नों के सत्य व यथार्थ उत्तर मिल सकते हैं।
मनुष्य का पुनर्जन्म होता है या नहीं? इसकी यदा कदा चर्चा धार्मिक जगत सहित टीवी आदि पर भी हो जाती है। वेदों ने सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों की प्रथम पीढ़ी के लोगों को सत्य व असत्य तथा सभी कर्तव्यों व अकर्तव्यों से परिचित कराया था। यह ज्ञान सृष्टि की आदि में उत्पन्न प्रथम चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को उनकी आत्माओं के भीतर विद्यमान सर्वव्यापक परमात्मा से प्राप्त हुआ था। वेद परमात्मा का नित्य ज्ञान है परमात्मा में सृष्टि के आदि से अन्त तक तो रहता ही है, प्रलय अवस्था व उसके आगे व बाद के काल में भी एक समान, न्यूनाधिक न होकर, एक रस व एक जैसा बना रहता है। वेदों के ज्ञान से ही आदि सृष्टि के मनुष्यों को ईश्वर, जीव प्रकृति का ज्ञान हुआ था। सृष्टि रचना के प्रयोजन सहित जीवात्मा के जन्म, पूर्व जन्म, पुनर्जन्म, बन्धन, मोक्ष, सुख व दुख का कारण व उसकी निवृत्ति के साधन आदि भी वेदों से ऋषियों व उनके द्वारा अन्य मनुष्यों ने जाने थे। जीवात्मा के सत्य स्वरुप, ईश्वर के सत्य स्वरुप व उसके गुण, कर्म व स्वभाव सहित प्रकृति की कारण व कार्य अवस्था का ज्ञान भी हमारे आदि ऋषियों व विद्वानों को था जिसका आधार वेद व उनका वेद ज्ञान पर आधारित आध्यात्मिक, सांसारिक व सामाजिक चिन्तन था। संसार में मनुष्य की जितनी भी शंकायें हो सकती हैं, उन प्रायः सब का सत्य सत्य ज्ञान वेदों से होता है।
वेदों से ही ईश्वर, जीवात्मा व जीवात्मा के पुनर्जन्म आदि के सिद्धान्त विश्व में प्रचारित व प्रसारित हुए, परन्तु महाभारत युद्ध के बाद अव्यवस्थाओं के कारण वेदों वा उनकी मान्यताओं का याथातथ्य प्रचार न होने के कारण लोग उसे भूलते रहे और समाज में अज्ञान व अन्धविश्वास प्रचलित होते रहे जिसका परिणाम अनेक प्रकार की धार्मिक व सामाजिक मिथ्या परम्पराओं का होना है। वेदों के प्रति अनभिज्ञता, अज्ञान व अन्धविश्वास ही मनुष्यों के पतन सहित देश की परतन्त्रता के प्रमुख कारण रहे हैं। सौभाग्य से उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में देश में ऋषि दयानन्द (1825-1883) का जन्म होता है। वह वेद व ऋषियों के ग्रन्थों को पढ़ते हैं। योगियों के सम्पर्क में आकर सच्चे योगी बनते हैं। ब्रह्मचर्य धारण कर अपने जीवन में शक्ति का संचय कर उससे वेद प्रचार का कार्य कर देश व संसार में फैली अविद्या को दूर करने के लिए आन्दोलन करते हैं। इस कार्य में उन्हें आंशिक सफलता मिलती है। कुछ लोगों वा अंग्रेज सरकार के षडयन्त्र के कारण उनका बलिदान व मृत्यु हो जाती है जिससे उनके द्वारा अविद्या के नाश और विद्या की वृद्धि का कार्य रुक जाता है। उनके बाद उनकी शिष्य मण्डली उनके जारी कार्यों को अपनी पूरी क्षमता व समर्पण की भावना से करती है। इसका परिणाम यह होता है कि वेदभाष्य का कार्य पूरा होता है, अन्य शास्त्रों पर भी टीकायें तैयार होती हैं और समाज में प्रचलित मिथ्या परम्पराओं के विरुद्ध आन्दोलन होता है जिसके अच्छे परिणाम सामने आते हैं। आज के आधुनिक भारतीय समाज में महर्षि दयानन्द के विचारों व मान्यताओं को कार्यरुप में परिणत हुआ देखा जा सकता है। यह बात अलग है कि देश के कुछ स्वार्थान्ध लोगों के कारण ऋषि दयानन्द के योगदान को उसके वास्तविक रूप में स्वीकार नहीं किया गया है।
वेदों के अनुसार ईश्वर व जीवात्मा चेतन, अनादि, अविनाशी, अनुत्पन्न व नित्य सत्तायें हैं जिनका निमित्त व उपादान कारण अन्य कोई नहीं है। ईश्वर, जीवात्मा व मूल प्रकृति को हम स्वयंभू सत्तायें कह सकते हैं जो अनादि काल से विद्यमान हैं और सदा बनी रहने वाली हैं। ईश्वर के प्रमुख कार्यों में सृष्टि की रचना करना, जीवात्माओं को उनके पूर्वजन्मों के कर्मों व प्रारब्घ के आधार जाति, आयु व भोग प्रदान करने के निमित्त मनुष्य आदि अनेक योनियों में जन्म देना, उनकी रक्षा, पालन व शुभाशुभ कर्मों के सुख व दुःखरुपी फल प्रदान करना है। ईश्वर का एक प्रमुख कृपा, कार्य व कर्तव्य सृष्टि के आरम्भ में मनुष्य जीवन को सुख व पापों से रहित होकर व्यतीत करने के लिए वेद ज्ञान प्रदान करना भी है। परमात्मा सृष्टि की आयु पूरी होने पर प्रलय करते हैं। यह भी परमात्मा के कर्तव्यों में सम्मिलित है।
जीवात्मा का पूर्वजन्म के कर्मों व प्रारब्ध के अनुसार जन्म होता है। मनुष्य योनि मिलने पर यह आत्मा की स्वतन्त्रता के अनुसार अपने ज्ञान व बुद्धि से सोचकर शुभ व अशुभ कर्म करता है। मनुष्य योनि उभय योनि है जिसमें मनुष्य पूर्वजन्मों के कर्मों के फलों को भोगता भी है और सन्ध्या, उपासना, यज्ञ, परोपकार, सेवा, कर्तव्य पालन सहित अज्ञान, स्वार्थ व एषणओं में फंसकर अशुभ कर्म भी कर लेता है। मनुष्य जन्म की शैशव, बाल्य, किशोर, युवा, प्रौढ़ व वृद्धावस्थायें होती है जिसके बाद रोग आदि कारणों से मृत्यु हो जाती है। मृत्यु क्या है? इस पर विचार करते हैं तो ज्ञात होता है कि वृद्धावस्था में हमारा शरीर आत्मा की इच्छा व प्रवृत्ति के अनुसार सभी कार्यों को ठीक से नहीं कर पाता है। शरीर की शक्तियां निरन्तर क्षीणता को प्राप्त होती रहती है। ऐसी अवस्था में साध्य व असाध्य कोटि के रोग आदि भी हो जाते हैं जिस कारण आत्मा ज्ञान व विवेक पूर्वक अपने कर्तव्यों व कार्यों को ठीक से नहीं कर पाती। वैदिक सिद्धान्त है कि जिसका जन्म व उत्पत्ति होती है उसका नाश भी अवश्य होता है। हमारा यह शरीर उत्पत्ति धर्मा है अतः इसका नाश भी अवश्य होगा। सृष्टि की आदि से अब तक असंख्य मनुष्यों व जीवात्माओं ने जन्म लिया परन्तु सबके शरीर वृद्धावस्था होने के बाद मृत्यु को प्राप्त हो गये। यही मृत्यु का स्वरुप व कारण है।
मृत्यु होने पर जीवात्मा परमात्मा की प्रेरणा से स्थूल शरीर से निकल कर सूक्ष्म शरीर सहित अपने भावी पिता व माता के शरीर में प्रवेश करती है। वहां माता के गर्भ में इस जीवात्मा के शरीर का निर्माण परमात्मा व उसकी व्यवस्था से होता है। जीवात्मा का जन्म उसके पूर्वजन्म के कर्मों व प्रारब्ध के अनुसार होता है। संसार में जन्म व मृत्यु का चक्र सृष्टि की आदि से चला आ रहा है। वृद्ध मरते जाते हैं और उनकी आत्मायें मनुष्य योनि की पात्रता पूरी करने वाली देश व समाज में युवा दम्पत्तियों के यहां जन्म लेती रहती हैं। माता-पिता वृद्ध होकर मरने को होते हैं तो उनकी सन्ताने दम्पत्ति बन कर ईश्वर की सृष्टि के संचालनार्थ मैथुनी सृष्टि का पालन कर उसे जारी रखती हैं। यह क्रम चला आ रहा है और प्रलय तक चलता रहेगा। प्रलय के बाद पुनः सृष्टि होने पर यही क्रम इस कल्प की भांति पुनः आरम्भ व प्रचलित होगा। जब तक जीवात्मा को मोक्ष नहीं मिलेगा, उसकी पूर्वजन्म-जन्म-पुनर्जन्म की यात्रा चलती रहेगी। मोक्ष के स्वरुप व उसके साधनों को जानने के लिए सत्यार्थप्रकाश का नवम समुल्लास पढ़ा जा सकता है।
जीवात्मा जन्म व मरण के बन्धन में बंधा हुआ है। जीवात्मा को मृत्यु का जो भय सताता है उसका कारण ही पूर्वजन्मों में अनेक वा असंख्य बार उसको मृत्यु के दौर से गुजरने का अनुभव है जिसकी अनुभूति उसकी आत्मा पर संस्कारों के रूप में विद्यमान रहती है। यही स्मृति व संस्कार उसके मृत्यु से भय का कारण होते हैं। मनुष्य पूर्वजन्म को भूल जाता है तो इसका कारण यह है कि पूर्वजन्म का शरीर वहीं पीछे छूट जाता है। उसका मन व मस्तिष्क आदि भी शरीर के साथ अन्त्येष्टि आदि द्वारा पंचभूतों में विलीन कर दिया जाता है। दूसरा कारण यह भी है कि मनुष्य को एक समय में एक ही ज्ञान होता है। हमें वर्तमान में ‘मैं हूं’ का ज्ञान है अतः पूर्व के ज्ञान विस्मृत रहते हैं। मनुष्य का स्वभाव भूलना भी है। हमने कल, परसो व उससे पूर्व क्या खाया, कैसे व कौन से वस्त्र पहने, किन किन से मिले, उनसे क्या क्या बातें की आदि समय के साथ भूलते जाते हैं तो फिर पूर्वजन्म की बातें कहां याद रह सकती हैं?
विस्मृति या भूलना भी मनुष्य के लिए एक प्रकार का वरदान है। यदि हमें पूर्वजन्मों की सभी बातें याद रहती तो खट्टी मिट्ठी यादों को स्मरण कर हमारा यह जीवन बर्बाद हो सकता था। हम जानते हैं कि कोई व्यक्ति हमारे साथ धोखाधड़ी करता है तो हम उससे कितने बेचैन हो उठते हैं। यदि पूर्वजन्म की सभी बातें याद होतीं तो यह हमारे वर्तमान जीवन में सुखभोग व परमार्थ के काम करने में बाधक हो सकती थीं। हम उन्हें भूल गये, यह ईश्वर की महती कृपा है। पुनर्जन्म की सिद्धि इस बात से भी होती है कि छोटा बच्चा मां का दूध पीना जानता है। उसे रोना आता है। वह सोते समय कभी मुस्कराता है, कभी उसके चेहरे पर अप्रसन्नता व अन्य प्रकार के भाव आते हैं, यह पूर्वजन्म की स्मृतियों के कारण होता है। अतः पूर्वजन्म वेद प्रमाणों, तर्क व युक्तियों के आधार पर सत्य सिद्ध है। आश्चर्य होता है कि आज के आधुनिक वैज्ञानिक युग में मत-मतान्तर के लोग जो पुनर्जन्म को नहीं मानते, इसके अनेक प्रमाणों की उपेक्षा करते हुए अपनी अविद्यायुक्त मान्यता को ही माने जा रहे हैं। वैज्ञानिकों को भी आर्यसमाज के वैदिक विद्वानों से पुनर्जन्म के तर्कों व युक्तियों को जानकर इसे स्वीकार करना चाहिये। हमने लेख के आरम्भ में संसार एवं जीवन के हरस्यों विषयक कुछ प्रश्न प्रस्तुत किये हैं, इन सबका उत्तर इस लेख के अधिक विस्तार होने के भय के कारण नहीं दिया। अपने लेखों में हम ऐसे सभी प्रश्नों के समाधान देते रहते हैं। हम आशा करते हैं पाठक इस लेख से लाभान्वित होंगे। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य