गीतिका/ग़ज़ल

मारे जाओगे

ख़िलाफ़   झूठ के   जाओगे  मारे  जाओगे,
जो  साथ सच का निभाओगे  मारे जाओगे।
अँधेरा  घर  हुआ  है  मोम  का  नसीब तुम्हें,
चराग़  ज्यों   ही  जलाओगे   मारे  जाओगे।
दिखाते  फिरते  हैं  जो  आईना  ज़माने को,
गो उन को तुम भी दिखाओगे मारे जाओगे।
जवाब  देह  न  कोई   जवाब  दें  फिर  भी,
सवाल   उन   पे  उठाओगे   मारे  जाओगे।
सफ़ेद   पोश  हैं  मोहरे  सियासती  सब ही,
सियह जो  इनको  बताओगे  मारे जाओगे।
मसीहा  जान के जो  झूठे  ग़म-गुसारों को,
फ़साना  अपना  सुनाओगे   मारे  जाओगे।
है इक सराब  सी ये  ज़िंदगी  यहाँ पे बशर,
दिल  ‘आरज़ू’  में  लगाओगे  मारे जाओगे।
— अंजुमन मंसूरी ‘आरज़ू’

अंजुमन मंसूरी 'आरज़ू'

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