वो दोस्त जो गुम है अब कहीं
ज्यादा पुरानी बात नहीं है, स्कूल के शुरूआती दिनों में ही उससे मुलाकात हो गई थी। उसकी आंखों में एक तेज़ था। मानों कि दुनियां जीत ले अपने शौर्य से,पर वो नादान तो अपनी मुस्कान से सबको अपना मुरीद बनाना चाहती थीं।
कुछ उसे सिरफिरा कहते थे तो कोई खुदगर्ज। वो तो अपनी धुन पर सवार थीं। हां, एक बहुत ही रोमांचक बात थीं उसकी। उसकी हर बात का,उसके हर ख्याल का आधार प्रेम ही था। उसको लगता था उसके सारे सपने पूरे हो सकते हैं बशर्त उनको प्रेम के धागे में पिरोया जाएं।
उसके सफ़र में काफ़ी दोस्त बने उसके। कुछ बहुत खास तो कुछ मानव जाति की कुरीतियों से लिप्त। कुछ ने उसे जीना सिखाया तो कुछ ने ऐसे अनुभव दिए कि जीना अनायास ही सीख गयी थी वो।
वो कहते हैं ना कि जीवन एक ऐसा सफ़र है कि अगले मोड़ पर कहां ले जाएं ये कोई नही जानता। कुछ ऐसा ही हुआ उसके साथ भीं, प्रेम में लिपटे उस भोले मनुष्य को ये पता नहीं था कि वो जिसको जीवन का आधार मान आगे बढ़ चुकी हैं इस सफ़र में, वहीं आधार बन जाएंगी इस सफ़र की मृग तृष्णा। उसका सच्चाई से पाला कुछ इस कदर पड़ा कि हिल गई उसके व्यक्तित्व की नींव, जिसके आधार पर वो सपनों का आशियाना बनाना चाहती थी।
मानवता को मिले श्रापों में कदाचित् सबसे ऊपर रखा जाना चाहिए उपहास बनाने की इंसानी प्रवृति को। इस प्रवृति ने ना जानें कितने महापुरुषों को समाज से कभी रूबरू ही नहीं होने दिया। वो मेरी दोस्त जो अपनी मनमोहक मुस्कान से दुनियां जीतने चली थी,अपने कुछ साथियों की उपहास की क्रूर हँसी में अपना सब कुछ हार गई। उस उपहास की प्रतिक्रिया देने की बजाय वो मौन रही, उसने सब कुछ वक्त पर छोड़ दिया।
जिस प्रेम की बैसाखी लिये वो दूर करना चाहती थीं अपने जीवन की विकलांगता,(लगाव,अकेलापन,प्रेम की पवित्रता से लोगों का मन जीतना चाहती थीं।) वो उसकी कमज़ोरी समझी गई।
खैर….. नादान थीं वो भीं। दुनियाँ का तो उसूल हैं कि वो प्रेम और करुणा से नहीं अपितू छल-कपट व ताकत से चलती हैं। बस उसे समझने में थोड़ा समय लगा।
बहुत दिन हो गए मिली नहीं उस दोस्त से मैं वो जो “गुम है अब कहीं” …..
गत दिनों कुछ लोग मिले थे,कह रहे थे प्रेम से घृणा करने लगी हैं।काश! मेरी आवाज़ उस तक पहुंचती तो उसको बताती जरूर कि गलत वो नहीं ,,,,,हालात थे। उसको कहती कि वहीं बालमन से सपनों को फिर से पुकार दोस्त। वो जवाब जरूर देगीं। जब भी उससे मुलाकात होंगी तब ये जरूर कहूंगी मैं।पहले सुनती थी मेरी, शायद अब भीं सुन ले।
— सविता जे राजपुरोहित