लघुकथा – बुझती लौ
शर्मा जी के मोहल्ले में मैं भी रहता हूँ। मुझे अपने घर का पता बताने में ज्यादा परेशानी नहीं होती थी। बस इतना ही कहना काफी था शर्मा जी के मोहल्ले में ही मेरा घर है। वे किसी परिचय के मोहताज नहीं थे। सारा शहर उन्हें अच्छी तरह जानता था। तीन-तीन फैक्ट्रियों के मालिक और न जाने कितने व्यवसाय से जुड़े शर्मा जी शहर के सबसे धनी व्यक्ति थे। उनके आलीशान बंगले के आगे हमारे छोटे-छोटे घर सूरज के सामने दीपक की तरह लगते थे। वे जब भी बाहर निकलते तब मोहल्ले के बच्चे तो बच्चे… बड़े-बूढ़े भी उनकी चमचमाती लक्जरी गाड़ियों के दर्शन से खुश हो जाते थे।
शर्मा जी के बाहर निकलने का समय हो रहा था। मैं अपनी बालकनी में खड़ा था। मैंने देखा कि उनके बंगले पर सरकारी गाड़ियों की कतार लगी थी, पुलिस की भी कुछ गाड़ियां थी। मैंने सोचा कि शायद वे किसी सरकारी कार्यक्रम में भाग लेने जा रहे होंगे, क्योंकि अक्सर उन्हें विभिन्न कार्यक्रमों में मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया जाता था।
तभी शर्मा जी कुछ व्यक्तियों और पुलिस के घेरे में बाहर निकले और पुलिस की गाड़ी में बैठ गए। मुझे कुछ अजीब सा लगा। मैंने बाहर निकलकर स्थिति को समझने की कोशिश की। पीछे सरकारी गाड़ियों का लम्बा काफिला निकला।
मेरे पड़ोसी ने बताया कि शर्मा जी के यहां आयकर विभाग का छापा पड़ा है। आय से अधिक रकम, बेनामी सम्पत्ति और काला धन रखने के मामले में पुलिस उन्हें हिरासत में लेकर पूछताछ करने ले गई है।
मैंने ईमानदारी पूर्वक खून-पसीने की कमाई से बनाया गया दो कमरों का अपना घर देखा, जो सूरज की तरह चमक रहा था और जिसकी प्रखर रोशनी में शर्मा जी का बंगला बुझती लौ के समान दम तोड़ता हुआ नज़र आया।
— विनोद प्रसाद