संस्मरण – सुगंध
“इतने बड़े दिल्ली शहर में रहती हूँ पिछले बीस वर्षों से | कभी वो महक मेरी साँसों में समाई ही नहीं जो एक गाँव के बड़े से आँगन में ट्रैक्टर से पलटी गई देसी गेहूं की बोरी से लगे हुए ढेर में कूद-कूदकर आती थी |”
“नींबू-अमरूद के पेड़, मिर्ची-टमाटर के पौधों की क्यारियाँ तुलसी का बड़ा सा पौधा आँगन के बीचों-बीच…….. भीनी सी स्वच्छ सुगंध प्रात: उठते ही |”
“पंजाबी परिवार है | सर्दियों में तंदूर की आग तो साँझ को बंद ही न होती थी | आस-पडोस के लोग अपना नंबर लगा जाते पहले से ही और हर रविवार सांझ होते ही तीन-चार घरों से बच्चे या पिताजी गाय के देसी घी से गूँथे हुए आटे को लेप लगा चिकना कर लाते और मेरी चाईजी से तंदूर में रोटियाँ लगवाते |सारा गलियारा यूँ महकता था कि न भूख हो तब भी बच्चा-बूढ़ा चार-छह रोटी तो खा ही लेता था |”
“वो सब कहीं इन डब्बों और बिल्डिंगनुमा खांचों में न दिखा |कुल्चे-छोले की हांडी, घर की बालकनी में कबूतर की गुटर-गूं,सड़कों पर रात-दिन चलती गाड़ियों की आवाज़, भागते लोग,झुग्गियों की रोती आत्मा, स्वार्थ के लिए सज्जन को पागल बनती चतुराई |
गंदगी से फैलती नई-नई बीमारियाँ, धर्म की दुहाई,नदियों में मूर्तिया, फूलों की बहाई |
छोटे शहरों से बड़े शहर में पढ़ाई या नौकरी के लिए आए लोग जो ऑफिस या कॉलेज जाते हुए जगह-जगह रेड़ियों पर चाउमीन, बर्गर, और न जाने क्या-क्या खाते, गिराते और सांझ को टिफ़िन आता जिसमें शाही पनीर पर शाही नहीं, दाल मख़नी पर मक्खन की जगह मिलावटी तेल और उपर से दिखावटी क्रीम | बस उससे ही पेट भरकर सो जाते | फिर चल पड़ते सफर पर | और सिर्फ वे ही नहीं सभी उस थाली के चटटू-बट्टे हैं | परवाह नहीं किसी को आस-पास क्या हुआ ? दुख की सांझेदारी बस शोक-सभा तक और सुख में आओ-मुस्कुराओ, पुश्तैनी रिश्तेदरियाँ निकालो, खाओ-पियो खिसको बस टाइम पास |”
“एक और मज़ेदार बात बताती हूँ आपको लोगो दिल बड़ा कमजोर है लोगों का, मेहमान आने वाला हो तब, और जब आ जाए तो जाएगा कब | हँसते रहेंगे चाय की चुस्की संग पर दम घुटता रहेगा |
एक तो बेचारा समय निकालकर आए, किराया खर्च करे, और ऊपर से ऐसी सोच ! उसके जाते ही आपस में भी लड़ पड़ेंगे |बड़ा ही कटु है ये अनुभव मानवीय भावनाएँ अपनी चरमसीमा पर देखना |
पिछले दो महीने में लॉकडाउन के चलते बालकनी के बाहर मुझे उस पुरानी #सुगंध का अंश तो महसूस हो रहा है आवरण में कुछ तो सुधार हुआ होगा जरूर तभी हवा स्वच्छ है, आकाश नीला है |”
“शायद कंकाल तंत्र के भी स्क्रू कस दिए हों भगवान ने कैद में,भीतर भी सुधार हो जाए तो कितना अच्छा होगा |”
— भावना ‘मिलन’ अरोड़ा