एक है चेहरा और कितने ही नकाब हैं
एक है चेहरा और कितने ही नकाब हैं
अंदर से कुछ बाहर से कुछ जनाब हैं
जुबान और करम में कोई राब्ता नहीं
इन बेतरतीबों के अलग ही आदाब हैं
ना जाने क्या क्या दबा रखा है दिलों में
कहने को तो कहते हैं खुली किताब हैं
झूठा गरूर होता हुस्न-ओ-जमाल का
पानी के बुलबुले से फानी शबाब हैं
ज़मीं पर तो चलना आया नहीं अभी
चांद पर बस्तियां बसाने के ख्वाब हैं
वो क्या सहारा बनेंगे मुफ़लिसों के
जिनके अपने ही सब खाने खराब हैं
फितरती लूटते हैं ज़माने को बेहिसाब
अपनी जब आये तो बताते हिसाब हैं
मिल जाएगी जन्नत मारकर मासूमों को
ऐसी सोच वाले ही आतंकी कसाब हैं
चराग़ तक नहीं ये हैं चराग़ तले अंधेरे
दिखाते हैं ऐसे जैसे कि आफ़ताब हैं
बेहयाई की गद्दी में बैठे हैं ताने सीना
जाने किस बदनाम शहर के नवाब हैं