इक बावफ़ा मुहब्बत बदनाम करते करते,
कब तक कोई जियेगा सरे-आम करते-करते ।
वो आइना बना है दुश्मन सा इस नगर में,
मंज़िल बता रहा है बदनाम करते-करते ।
लहरों का रुख़ समंदर में ख़िल गया अचानक,
बोझिल हुआ ख़ुदा को पैग़ाम करते-करते ।
वो बेवफ़ा था लेकिन दुश्मन मग़र नहीं था,
मैं रो रहा हूँ ग़ज़लें अंजाम करते-करते ।
इस भीड़ में हूँ तन्हा ताईद कर रहा हूँ,
ख़ुद को ही खो चुका हूँ नाकाम करते-करते ।
इक मेरा रंजोगम था बेपर्दा हो चुका जो,
बदनाम कर गया है इल्ज़ाम करते-करते ।
वो दूर तो नहीं है, पर शूल हैँ डगर में,
मैं थक गया हूँ मंज़िल गुलफ़ाम करते-करते ।
ज़िंदा तो हूँ मैं लेकिन, आराम कर रहा था,
कुछ औऱ थक गया हूँ आराम करते-करते ।*’
तन्हा सी ज़िन्दगी में, इक ख़्वाब ढूँढता था,
गुज़री है उम्र ख़ुद को सद्दाम करते-करते ।
— हर्ष महाजन ‘हर्ष’
सद्दाम–शक्तिशाली शासक
ताईद–पुष्टि
गुलफ़ाम–अत्यंत सुंदर