वेद न होते तो सनातन धर्म, राम, कृष्ण और दयानन्द भी न होते
ओ३म्
वेद शब्द का अर्थ ज्ञान है। वेद नामी ज्ञान ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद नाम की चार मन्त्र संहिताओं की संज्ञा है। यह ज्ञान कब व कहा से प्राप्त हुआ? इसका स्रोत क्या है? हम जानते हैं कि ज्ञान का स्रोत विद्वान हुआ करते हैं। विद्वान गुरुओं व ग्रन्थों का अध्ययन कर विचार व चिन्तन कर जो सत्य अनुभव करते हैं, उसका प्रवचन व ग्रन्थ लेखन कर उसे सामान्य मनुष्यों तक पहुंचाते हैं। वर्तमान में वेद चार मन्त्र सहिंताओं के में पुस्तक रूप में उपलब्ध हैं। इन पर ऋषि दयानन्द कृत प्रामाणिक आंशिक संस्कृत व हिन्दी भाष्य उपलब्ध है। अन्य आर्य विद्वानों के हिन्दी भाष्य भी उपलब्ध हैं। वेदों के मन्त्रों के कर्ता, रचयिता व प्रवक्ता कौन है? इस पर विचार करते हैं तो यह ज्ञात होता है कि वेदों का यह ज्ञान सृष्टि के आरम्भ में प्राप्त हुआ था। इसका उल्लेख अत्यन्त प्राचीन ग्रन्थ शतपथ ब्राह्मण में हुआ है। शतपथ ब्राह्मण में वर्णन है कि सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा से अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न मनुष्यों में से चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य एवं अंगिरा को एक-एक वेद का ज्ञान प्राप्त हुआ था। सृष्टि के आदि काल में अमैथुनी सृष्टि के मनुष्यों को ज्ञान देने वाला कोई गुरु व आचार्य उपलब्ध नहीं था। आदि सृष्टि के मनुष्यों को ज्ञान सहित भाषा की भी आवश्यकता थी। इसका कारण यह है कि ज्ञान हमेशा भाषा में ही निहित होता है तथा इसे भाषा में बोलकर अथवा ग्रन्थ लिखकर ही किसी अन्य मनुष्य व मनुष्य-समूह को दिया जा सकता है। ज्ञान देने की इससे भिन्न अन्य कोई विधि नहीं है। सृष्टि के आरम्भ में न कोई आचार्य थे और न ही गुरु थे। परमात्मा ने जिन ऋषि कोटि के मनुष्यों को जन्म दिया था उनको ज्ञान देने के लिए एक ज्ञानवान, चेतन, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वान्तरर्यामी तथा सर्वशक्तिमान सत्ता की आवश्यकता थी। उस समय जगत में सर्वव्यापक परमात्मा ही एकमात्र ऐसी सत्ता थी जो सर्वज्ञ एवं सर्वज्ञानमय थी।
प्रश्न है कि क्या यह ईश्वर नामी सत्ता आदि मनुष्यों को ज्ञान दे सकती थी? इसका उत्तर हां में मिलता है। जो सत्ता बिना मनुष्य शरीर धारण किये, अपनी सर्वव्यापकता, सर्वज्ञता, निराकारस्वरूप तथा सर्वशक्तिमत्ता गुणों से इस ब्रह्माण्ड की रचना व संचालन कर सकती है, जो चेतन सत्ता अमैथुनी सृष्टि में बड़ी संख्या में स्त्री-पुरुषों व नाना प्रकार के प्राणियों के शरीरों की रचना कर सकती है, वह सत्ता अवश्य ही मनुष्यों को वेदों का ज्ञान भी दे सकती है। वह कैसे ज्ञान दे सकती है? इसका तर्क एवं युक्तियुक्त वर्णन ऋषि दयानन्द सरस्वती जी ने सन् 1875 में लिखित अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में किया है। उन्होंने कहा है कि परमात्मा ने आदि चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद का ज्ञान दिया था। यह ज्ञान सर्वव्यापक एवं सर्वान्तर्यामी परमात्मा ने ऋषियों की आत्मा में उन्हें प्रेरणा करके स्थापित वा प्रदान किया गया था। ईश्वर से वेदज्ञान की प्रेरणा ग्रहण कर ऋषियों को वेद उसके यथार्थ अर्थों सहित स्मरण वा कण्ठस्थ हो गये थे। परमात्मा ने ऋषियों को मन्त्रों के अर्थ भी जनाये थे। इन ऋषियों ने ब्रह्मा नाम के एक अन्य ऋषि को इन चारों वेदों का ज्ञान कराया। इसके बाद ब्रह्मा जी से वेदों के ज्ञान देने, प्रचार व पठन-पाठन की परम्परा संसार में प्रचलित हुई जो महाभारत युद्ध के समय तक निर्बाद्ध रूप से चलती रही।
इस परम्परा से ब्रह्मा से लेकर जैमिनी ऋषि पर्यन्त सभी ऋषि-मुनि व मनुष्य वेदों का ज्ञान प्राप्त करते कराते रहे और उसे अपने शिष्यों के द्वारा बढ़ाते रहे। जैमिनी मुनि पर आकर वेदाध्ययन की परम्परा में बाधायें उत्पन्न हुईं। जैमिनी ऋषि के बाद ऋषि-परम्परा टूट गई अर्थात् इनके बाद परम्परा से ऋषि उत्पन्न नहीं हुए। इस कारण देश अज्ञान के तिमिर में डूब गया। देश में अज्ञान के फैलने से सर्वत्र अन्धविश्वास, कुरीतियां एवं समाज में अनेक प्रकार की विकृतियां उत्पन्न हो गईं। सन् 1825 में गुजरात के मौरवी राज्य व इसके टंकारा नामक ग्राम में ऋषि दयानन्द का जन्म हुआ जिन्होंने मथुरा में प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी से आर्ष व्याकरण, निरुक्त सहित सभी वेदांगों का अध्ययन किया और वेदाध्ययन की परम्परा को पुनर्जीवित किया। ऋषि दयानन्द के अनेक शिष्यों ने वेदाध्ययन की परम्परा को गुरुकुलों के माध्यम से वेदांगों का अध्ययन कराकर आगे बढ़ाया। वर्तमान में भी गुरुकुलों द्वारा वेदांगों के अध्ययन द्वारा वेदाध्ययन की परम्परा चल रही है। वेदों के आविर्भाव से संसार में धर्म का आविर्भाव हुआ। वेद ही सृष्टि के आरम्भ ईश्वर से उत्पन्न होने से सनातन ग्रन्थ हैं। वेदों द्वारा प्रवर्तित धर्म ही सनातन वैदिक धर्म कहलाता है।
वेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है और यह चार वेद सब सत्य विद्याओं के भण्डार हैं। प्राचीन काल से महाभारत काल के 1.96 अरब वर्षों तक वेदाध्ययन कर देश में ऋषि-मुनि-मनीषी-योगी एवं वेदों के मर्मज्ञ विद्वान उत्पन्न होते रहें। वेदों की शिक्षा को आत्मसात कर अतीत में अनेक आदर्श महापुरुष एवं ऋषि आदि उत्पन्न हुए। महापुरुषों में मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम एवं योगेश्वर श्री कृष्ण का अग्रणीय स्थान हंै। हमें लगता है कि राम तथा कृष्ण का जो आदर्श जीवन था, उसके समान विश्व में विगत पांच हजार वर्ष में कोई महापुरुष उत्पन्न नहीं हुआ। महर्षि दयानन्द इसके अपवाद थे। उनका वेदों का ज्ञान प्राचीन काल के ऋषियों के समान था तथा उनके कार्य वैदिक धर्म एवं संस्कृति सहित मानवता की रक्षा से सम्बन्धित थे। सृष्टि की आदि से लेकर ऋषि दयानन्द पर्यन्त उनके समान वेद ज्ञान से युक्त संघर्ष एवं आन्दोलन करने वाला ऋषि व संन्यासी उत्पन्न नहीं हुआ। स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती, पं0 लेखराम, पं0 गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती, आचार्य पं0 चमूपति, पं0 गणपति शर्मा आदि महापुरुषों का भी जीवन महापुरुषों के समान आदर्श जीवन था। इनकी श्रेणी का महापुरुष भी विश्व में शायद ही कोई उत्पन्न हुआ हो? हमारे देश में उत्पन्न यह सभी महापुरुष वेद ज्ञान से परिपूर्ण थे। इन्होंने मानवता का अत्यन्त उपकार किया है। श्री राम, श्री कृष्ण एवं ऋषि दयानन्द सहित वेद एवं ऋषियों के दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति एवं अन्य प्रामाणिक ग्रन्थों के कारण ही वर्तमान में वैदिक धर्म एवं संस्कृति जीवित है। आज भी इन महापुरुषों के जीवन चरितों को पढ़कर देशवासी प्रेरणा ग्रहण करते हैं और अपने जीवन को सार्थक एवं सफलता प्रदान करते हैं।
हमारे देश में जो अगणित ऋषि, मनीषी तथा योगी महापुरुष हुए हैं उसका कारण उनका वेद ज्ञान का अध्ययन व उसे जीवन में धारण करना था। यदि वेद न होते तो हमारे देश सहित विश्व में कहीं ऋषि, योगी, आदर्श पुरुष राम, कृष्ण तथा दयानन्द आदि महापुरुष कदापि न होते। वेद मनुष्य के कुसंस्कारों को दूर कर उसे देवतुल्य आदर्श विद्वान, मनुष्य, महापुरुष, सदाचारी, देशभक्त, परोपकारी, वीर, साहसी, ईश्वरभक्त, योगी, वेदप्रचारक, चरित्रवान, समाज-सुधारक तथा विश्व-वन्द्य बनाते हैं। महाभारत काल तक वेदों का प्रभाव व प्रचार सारे विश्व के देशों में था। महाभारत युद्ध के बाद भारत सहित विश्व के देशों में वेदाध्ययन अप्रचलित होने से अज्ञानान्धकार उत्पन्न हुआ। इससे संस्कृत भाषा में अपभ्रंस होकर विश्व में अनेक भाषाएं बनी और उनका प्रचलन व प्रचार हुआ। अज्ञान के कारण ही विश्व में अविद्या से युक्त अनेक मत-मतान्तरों का आविर्भाव समय-समय पर हुआ। आज भी मत-मतान्तरों में निहित अविद्या व मत-मतान्तरों की परस्पर-विरोध-भावना दूर नहीं हो रही है। इसका कारण यह प्रतीत होता है कि धर्म व मत-सम्प्रदाय के लोगों में सत्य को ग्रहण करने और असत्य का त्याग करने की प्रवृत्ति व गुण नहीं है। लोग आध्यात्म से दूर चले गये हैं जिसका कारण भौतिकवाद तथा सुख के साधनों में प्रवृत्ति तथा कुछ लोगों के राजनैतिक स्वार्थ हैं। वर्तमान में आर्यसमाज का प्रचार भी शिथिल पड़ चुका है जिसके अनेक कारण हैं। ऋषि दयानन्द ने अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह तथा अविद्या को भी मनुष्यों द्वारा सत्य को स्वीकार न करने का कारण माना है।
ऐसी स्थिति में वेदों में अभीष्ट ‘कृण्वन्तो विश्वमार्य’ अर्थात् विश्व को सत्यज्ञान वेद से युक्त श्रेष्ठ गुण-कर्म-स्वभाव वाला मनुष्य बनाने का कार्य बाधित हुआ है। भविष्य में वेदों का जन-जन में प्रचार हो सकेगा, यह संदिग्ध लगता है? यह स्थिति अविद्यायुक्त मत-मतान्तरों के लिये सन्तोषप्रद हो सकती है परन्तु ऋषि दयानन्द के आर्यसमाज व उसके सच्चे अनुयायियों के लिए चिन्ता व दुःख का कारण है। ईश्वर ही लोगों के हृदयों में सद्प्रेरणा कर वेदज्ञान का प्रसार करने में भूमिका निभा सकते हैं। अतः हम परमेश्वर से ही प्रार्थना करते हैं कि वह वेदज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिये आर्यपुरुषों सहित भिन्न-भिन्न मत-मतान्तरों के आचार्यों एवं जन-जन में सत्य के ग्रहण एवं असत्य के त्याग सहित अविद्या के नाश एवं विद्या की वृद्धि की भावना को उत्पन्न करें। सनातन ज्ञान व ग्रन्थ वेदों के प्रचार-प्रसार से ही विश्व में मत-मतान्तरों का उन्मूलन होकर सत्यज्ञान व धर्म की स्थापना सहित सुख, शान्ति व कल्याण का वातावरण बन सकता है। ईश्वर सनातन वेद ज्ञान वा सनातन धर्म को जन-जन तक पहुंचाने में लोगों के हृदयों में प्रेरणा करें और इस कार्य को सफलता प्रदान करें। वेद ही वह ज्ञान है जिसके अध्ययन से एक सामान्य मनुष्य ऋषि, विद्वान तथा योगी बनने सहित राम, कृष्ण और दयानन्द बन सकता है। वर्तमान व भविष्य में भी सभी मनुष्य वेद, वैदिक धर्म एवं संस्कृति को ग्रहण व इसे आत्मसात कर आदर्श मनुष्य बन सकते हैं और अपने राम आदि पूर्वजों के समान महान बन सकते हैं। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य