गीतिका
बैठ करके हाथ तू! एक दिन मलेगा ।
झूठ का धंधा तेरा कब तक चलेगा ?
चाँद, सूरज, रोज ढलने को निकलते,
भूल मत कि एक दिन तू भी ढलेगा ।
तिमिर! तब तक जीत का उत्सव न करना,
जब तलक तन्हा दिया कोई जलेगा ।
झोपड़े को उजड़ने तक पता न था ,
महल की आँखो में वो ऐसा खलेगा ।
एक दिन सब दूर हो जायेंगे तुझसे,
बोल अपनो को भला कब तक छलेगा ?
——–डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी