तत्परता
मन्दिर-मन्दिर भटक रहा तू,
फिर भी शान्ति नहीं मिलती।
मन ही मन में कुढ़ता रहता,
हृदय में ज्योति नहीं जलती।
कंचन काया की खातिर,
कितने यत्न किये तूने।
रिश्तों में कितनी कड़वाहट है,
क्या इस पर ध्यान दिया तूने?
सौन्दर्य प्रसाधन में अटकी,
अब सबके घर की नारी है।
उसको इतना पता नहीं वह,
किस सौन्दर्य की अधिकारी है।
नारी का सौन्दर्य तो लज्जा है,
जो यौवन का आभूषण है।
निज स्वभाव की पावनता से
मिटते जीवन के सारे दूषण हैं।
पुरुष का पौरुष दिखलाना है,
तो दीन – हीन की सेवा कर।
स्त्री की सुचिता बनी रहे,
इस हेतु सदा तत्परता रख।
— अनुपम चतुर्वेदी