कविता

बिटिया के पिता

करके कन्यादान,हृदय को 
भारमुक्त नहीं करते हैं,
हर एहसास में रखते हैं, 
बिटिया को अपने पास पिता।
आँगन की उनकी कुसुम कली, 
जब चलती है अंजान गली,
मन व्याकुलता से भर जाता, 
आँखो में  काटते रात पिता।
प्राणविहीन सा तन होता, 
बोझिल- बोझिल सा मन होता,
कई आशंका मन में उठते, 
पर कहते ना कोई बात पिता।
बिटिया के अरमाँ पूरे हो, 
भले निज स्वप्न अधुरे हों,
अपनी सामर्थ्य से बढ़कर भी, 
भरकर देते सौगात पिता।
गर बिटिया हंसते आती है,  
हर बात चहक बतलाती है,
मन भर जाता है खुशियों से, 
तब रोकते हैं जज्बात पिता।
मन ही मन विनती करते हैं, 
किसी अनहोनी से डरते हैं,
बेटी के हर सुख दुख में  तो, 
रहते हैं उसके साथ पिता।
” योग्य घर ना मिला पापा” , 
जब बिटिया रोकर ये बोले,
फट जाती है छाती तब तो,    
पाते हृदयाघात पिता।
माँ तो खुलकर बातें करती, 
कभी हंस लेती कभी रो लेती,
पर प्रकट नहीं कर पाते हैं, 
अपने मन का संताप पिता।
कभी छुटकी, कभी बड़की, 
कभी मन्झली रुष्ट हो जाती है,
चुपचाप अकेले कमरे में,  
करते तकियों से बात पिता।

— क्षमा शुक्ला

क्षमा शुक्ला

औरंगाबाद बिहार