मैं सांझ, तू सवेरा
मैं सांझ, तू सवेरा ।
फिर भी आंख में ख्वाब है ,
सिर्फ तेरा ।
एहसास मुझे है इतना भी,
जब सुबह की रोशनी होगी ,
तेरी सांझ का उठता होगा डेरा ।
मैं सांझ तू सवेरा …….
चांदनी रात में ,
टिमटिमाते तारों में।
चांद का दीदार होगा,
सांझ का सवेरा।
वो पल भी मुस्कुरा रहा होगा ,
जब छत पर चांद आकर ,
सांझ को देख कर सरमाया होगा।
वक्त भी थोड़ा ठहरने को, ललचाया होगा ,
जब सांझ ने सवेरे को गले,
से लगाया होगा।
और तारे भी मंद मंद टिमटिमाते हुए,
जुगनू की तरह,
कभी जलकर, तो कभी भुज कर ,
कभी अंधेरा ,तो कभी रोशनी कर,
सांझ और सवेरे को,
मिलाया होगा।
फिर सवेरा सांझ को
अलविदा कर।
थोड़ा तो पछताया होगा ,
जब सवेरा होते ही सांझ ना
नजर आयी होगी।
सफर वही है,पर दोनों
साथ नहीं नजर आए ,
कभी सांझ , तो कभी सवेरा,
बस यही तक साथ था,
शायद तेरा मेरा,
क्योंकि
मैं सांझ, तू सवेरा,
वही आसमान है मेरा,
वही आसमान है तेरा।
पर मैं सांझ और तू सवेरा,
मेरा वक्त भी बदल जाता है,
जब ये साथ ना हो तेरा।
और बुरा वक्त भी गुजर जाता है।
जब साथ हो सवेरा,
मैं सांझ तू सवेरा।
एक कर्म है तेरा,
एक कर्म है मेरा।
क्योंकि मैं सांझ ,तू सवेरा ।
मैं सांझ तू सवेरा।
— रानी कुशवाहा