कविता

रोटी

राह कठिन है रोटी की,
पर भूख का सबब है रोटी,
एक रोटी के खातिर ही तो,
इंसा जंगल-जंगल,शहर, 
महानगर मारा-मारा फिरता है,
पेट हमेशा भरा रहे वो,
जतन हमेशा करता है,
रोटी की खातिर दहका 
बंजर भुमि को भी,
खून पसीने से सींचता है,
मिले एक दिन ईजाद की रोटी वो,
प्रयत्न यही करता है,
ठिठुर-ठिठुर कर पूष की रात में
अलाव सहारे पुरी 
रात वो जगता है,
तब कही जाकर दहका 
सबका पेट भरता है,
रोटी की खातिर ये पापी पेट
क्या-क्या न कराता है,
चोरी,चकारी,कालाबजारी, 
फिर भी न पेट भरता है,
बदल गई है अब 
रोटी की परिभाषा,
लोकतंत्र के नाम पर 
अब रोटी हो गई विकास की,
ज्ञान-विज्ञान और अनुसंधान की,
पर कौन समझाएगा 
विकास के इन ठेकेदारों को,
असली विकास तो होगा जब,
एक-एक बच्चा भर पेट 
रोटी खा सोएगा,
रोटी देने वाला दहका भी 
जब दिल खोल हँसेगा,
पीले करने को बेटी के हाथ वो
अपना खेत नहीं बेचेगा,
एक रोटी के खातिर जब 
न कोई लूट पाट करेगा,
रोटी अमीर की,रोटी गरीब की,
अपने-अपने हिस्से की रोटी 
सबको सुख चैन से मिलेगा।
कहे सरोवर रहो मगन,
मेहनत की रोटी में न हो शरम

— सुनीता सिंह ‘सरोवर’

सुनीता सिंह 'सरोवर'

वरिष्ठ कवयित्री व शिक्षिका,उमानगर-देवरिया,उ0प्र0