मेरी माँ
बचपन- मेरी माँ श्रीमती नीलिमा भाटिया का जन्मदिन 26 जुलाई 1951 को लेडी हार्डिंग मेडीकल कालेज से जुड़े श्रीमती सुचेता कृपलानी अस्पताल नई दिल्ली में हुआ था। मां का जन्म तो दिल्ली में हुआ था, क्योंकि यहां उनके नाना जी और दादा जी दोनों का घर रहा है, लेकिन उनका बचपन उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में बीता, क्योंकि मां के पिताजी सरकारी नौकरी के कारण मुजफ्फरनगर में रह रहे थे।
मां बचपन में बहुत सादगी से रहती थीं, लेकिन बहुत बहादुर हिम्मत वाली लड़की थी। डरती नहीं थी किसी से, शेरनी थी। लड़के मां से डरते थे। पर वे बहुत मिलनसार भी थीं। उनको सफेद रंग पसंद था। हमेशा सफेद सुट पहनती थीं। रंग बिरंगे कपड़े उनको पसंद नहीं था।
मां को पढ़ने का बहुत शौक था। पढ़ाई वहीं मुजफ्फरनगर से की थी। एक बात ये जरूर थी कि उन दिनों कम उम्र में ही शादी कर दी जाती थी। लेकिन मेरी मां पढ़ना चाहती थी। उनके पिताजी का पूरा सहयोग रहा। उन्होंने पूरी पढ़ाई कराई थी। माँ ने हाईस्कूल 1966 में और इंटरमीडियेट 1968 में किया था।
वैसे मां को दादी आगे पढ़ाना नहीं चाहती थी, लेकिन मां पढ़ना चाहती थी। उनके पिताजी माताजी के सहयोग से आगे पढ़ाई करती रहीं। मां पहली लड़की थी कि जिसने मुजफ्फरनगर में पढ़ाई पूरी की। उसके बाद मुजफ्फरनगर में लड़कियों के मां-बाप ने उनको पढाना शुरू कर दिया था। मेरी मां मुजफ्फरनगर में अपनी पढ़ाई के साथ-साथ छोटे छोटे बच्चे को घर पर पढ़ाती थी। मां ने 1970 में मेरठ विश्वविद्यालय से बी.ए. किया। फिर 1972 में अर्थशास्त्र में एम.ए. किया था।
माँ को पढ़ाने में रुचि थी, अध्यापिका बनना चाहती थीं, इसलिए बी.एड. करना चाहती थीं। उनके पापा ने उनको बी.एड. में प्रवेश कराया था। उन्होंने 1974 में पंजाब विश्वविद्यालय से बी.एड किया था। उन दिनों वे होस्टल में भी रही थीं।
नौकरी का अनुभव – मां ने मुजफ्फरनगर में शिक्षिका की नौकरी भी की थी। वे शिशु शिक्षा निकेतन में 1970 से 1973 तक सेवा अध्यापिका रही थीं। फिर बी.एड. करने के बाद बाल कुंज मोंटेसरी स्कूल में भी कुछ महीने पढ़ाया था। मां ने जब मुजफ्फरनगर से नौकरी की, तब से बहुत सी लडकियों में हिम्मत आई थी। उन्होेंने भी पढ़ाई और नौकरी करना शुरू किया। उनके मां बाप का सहयोग रहा।इसी बीच उन्होंने श्री गीता रामायण परीक्षा समिति की रामायण परीक्षा के दो स्तर ’शिशु’ और ‘प्रथमा’ भी उत्तीर्ण किये थे। इनके प्रमाणपत्र आज भी मेरे पास सुरक्षित हैं।
विवाह – मां की दादी ने मां के लिए लड़की ढूंढना शुरू कर दिया था। मां का दादी (मेरी परनानी) का घर दिल्ली में है। इसलिए मां को उनके पिताजी गर्मी की छुट्टियों में दादी के पास महीनों तक छोड़ देते थे। दादी ने मां के लिए लड़का ढुंढा था, तो उन्होंने दिल्ली बुला लिया था। मां के पिताजी वापस मुज़फ्फरनगर आ गये थे।
मेरी मां बताती थी कि उनकी शादी कैसे हुई थी। मेरी पापा की बुआ की बेटी और मां की दादी पड़ोसी थे। बुआ की बेटी ने उनको बताया कि मेरे मामाजी दुबई से आ रहे हैं, आप देख लो। मां की दादी बहुत खुश थी कि दुबई का लड़का था और कमाता भी था। मेरे पिताजी सबसे छोटे थे। मां की दादी के घर पर ससुराल वाले आते थे मां से मिलने। उनको मेरी मां बहुत पसंद आयी। मेरे पापा तो तैयार थे ही। सब ख़ुश थे कि लड़की पढी लिखी है। शादी एक हफ्ते में हो गई थी, क्योंकि मेरे पिताजी को दुबई जाना था। सब तैयारी हो गई थी। मेरी मां के पिताजी-माताजी को पता चला तो बहुत रोये थे। मां की दादी को जो लड़का पसंद होता था वहीं विवाह करना पड़ता था। खैर मां के पिताजी माताजी दिल्ली आ गये। अच्छे से शादी कर दी। 9 मई 1975 को उनका विवाह हुआ था।
मेरे दादाजी मेरी मां को काकी बुलाते थे। कभी उन्होंने घर के काम का दबाव नहीं डाला था। मेरी मां की सुसराल बहुत अच्छी थी। लेकिन मेरी मां बताती थी कि जब पहली बार शादी करके दुबई गई थी तो उस वक्त न फोन होता था, न खत। उनके लिए अकेलापन बहुत रहा है। पापा का सहयोग तो था। लेकिन उनकी ड्यूटी अलग थी, जहाँ से वे 7 दिन के बाद आते थे।
मां घर में अकेली रहती थी। वहां मोहल्ले से मां तो नहीं डर रही थी। लेकिन वहाँ मुसलमान बहुत थे। दुबई में सभी तरह के लोग रहते थे। उनमें भारतीय भी थे। एक सोसाइटी की तरह सब मिलजुल रहते थे। लेकिन मेरी मां हमेशा हनुमान चालीसा पढती थी, जब अकेलापन होता था। वहां पर एक इडियन स्कूल था। वहां माँ नें हिंदी पढ़ायी थी। वहीं उनका बड़ा बेटा यानी मेरे बड़े भैया का जन्म हो गया था। वे वहाँ बहुत साल रहे। लेकिन कुछ ऐसी समस्या बन गई थी कि मेरे पापा को नौकरी छोड़कर पंजाब जालंधर आना पड़ा। नौकरी छोड़ने का कारण यह था कि भारत सरकार और ईरान-दुबई में कुछ लड़ाई चल रही थी, जिसके कारण वे भारतीयों को परेशान कर रहे थे। तो पापा ने नौकरी छोड़ना बेहतर समझा। पंजाब में आकर पापा ने छोटी मोटी नौकरी की। एक साल बाद छोटा भैया हुए। पर मेरे दादा दादी बहुत अच्छे थे। उन्होंने कभी पुछा नहीं कि क्यों छोडी नौकरी। वे बच्चों की खुशी में ख़ुश रहते थे।
फिर पापा दिल्ली आ गये मेरे ताऊजी के पास। दिल्ली में मेरे पापा ने दुकान खोलने की योजना बनायी। पापा ने दिल्ली दुकान के लिए फॉर्म भर दिया था। दिल्ली में नारायणा में रहे। मेरे फुफा जी मिलिटरी में थे, तो उनका नारायणा वाला मकान खाली था। वहाँ किराये पर रहे। 1979 में अचानक हमारी पालिका बाजार दुकान की लॉटरी निकली। उसमें हमारा नाम आया था। मां बोलती थी कि इस दुकान का 8 नवम्बर 1979 को मुहुर्त हुआ। उसके ठीक एक साल बाद मैं 8 नवम्बर 1980 को पैदा हुई थी। सब खुश थे।
दुबई से आने के बाद मां बाप का संघर्ष बहुत कठिन था। लेकिन 1979 के बाद सब ठीक हो गया था। मेरा पापा ने दिल्ली डीडीए फ्लैट का फॉर्म भरा था। उससे मयूर विहार में हमारा नाम आया जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी। 1980 में मेंरे दादाजी चल बसे थे। दादी पहले ही चल बसी थीं। मेरे पैदा होने के बाद हमारे मकान की लाटरी निकली। हम 1984 में मयूर विहार आ गये थे। सच में मां बहादुर थी। पारिवारिक जीवन में संघर्ष किया था। पापा भी उनके साथ थे। मां ने पढ़ाई तो बहुत की थी, लेकिन पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण नौकरी नहीं कर सकीं, क्योंकि बच्चों को भी सम्भालना होता था। जब मैं मयूर विहार में रहती थी, तो थोड़ा पापा बीमार थे। इसलिए मां ने दुकान को भी संभाला। साथ में मेरा भी ध्यान रखती थी क्योंकि सुनने की समस्या के कारण मेरा इलाज भी चल रहा था। मां कभी डरती नहीं थी। हर मुश्किल का सामना करती थी।
समाज सेवा की शुरुआत- हम बच्चे बड़े हो गये थे। मैं कालेज में पढ़ रही थी। बड़े भैया की शादी कर दी थी। छोटे भैया पापा के साथ दुकान पर जाते थे। मां को बहुत खालीपन लग रहा था। उनकी सहेलियां बहुत थीं। उनकी एक सहेली ने बताया कि मयूर विहार में नया एनजीओ खुला है। घर के पास है। आप वहाँ पढाना शुरू कर दो। मां ने उद्यान केयर में पढ़ाना शूरू किया था। मेरा भी फाइनल ईयर का रिजल्ट आना था, तो मैं भी पढ़ रही थी। मां को इन बच्चों से लगाव हो गया था। आज भी बच्चे उनको बहुत याद करते हैं। जब उन्हें पता चला मां के देहान्त का, तो उन्हें दुख हुआ। अब बच्चे बड़े हो गए थे। बच्चों का कॉल भी आया था मेरे पास। यहीं से समाज सेवा लगाव हुआ था।
माँ कुछ न कुछ दान करती थी। 2004 से 2013 तक उद्यान केयर में इंचार्ज का काम किया था। 2013 मे छोड़ दिया था, क्योंकि पापा बीमार हो गए थे। उनका सपना भी था- पढ़ाना और समाज सेवा करना। इसके बाद 2014 के बाद मेरे पापा के निधन से मां अकेली हो गई थी। उन्होंने पोते-पोतियों के साथ जीवन बिताया। इसके बाद कोई काम नहीं किया था। मेरी शादी कर दी थी। लेकिन जब मेरे सुसराल की परेशानी का पता चला, तो उन्होंने मरा पुरा साथ दिया।
2018 में मैं और मां गाजियाबाद में आ गये थे।। यहां निर्भेद फाउंडेशन में मैंने और मां ने बच्चों को पढ़ाया था। उनको काफी सहयोग मिला था इनसे। जाते जाते माँ एक काम कर गयी है। वह बच्चों के नोट्स बना गयी थी। पहली से चौथी कक्षा तक के। उन्हें सब याद रहता था। उनको बहुत जानकारी थी।
विकलांग बल -जब मां को पता चला कि मैं विकलांग बल उपाध्यक्ष हूं उनको बहुत खुशी हुई और सहयोग दिया था। अनुज और विजय जी से मिलकर उन्हें अहसास हो गया था कि मैं ग़लत रास्ते परं नहीं हूं।
2018 से 2020 तक मां ने निर्भेद में पढ़ाया। मार्च 2020 में लॉकडाउन लगने से सब बन्द हो गया। मां खाली समय में शिक्षाप्रद दोहों पर आधारित ‘कटु सत्य’ लिखती थी। हमारे विकलांग बल प्रधान विजय सिंघल जी ने इसमें बहुत सहयोग दिया था। जगह जगह उनको पोस्ट किया था। काफी लोगों को वह अच्छा लगता था। साथ में मेरी कहानी लिखने में भी मुझे सहयोग दिया था, जो जय विजय पत्रिका में छपी थी।
दिल्ली में हर साल डॉटर्स डे पर महिलाओं की दौड़ होती है। 8 सितम्बर 2019 में बजाज इलैक्ट्रीकल पिंकाथन में हम दोनों ने भाग लिया था। मम्मी को इस दौड़ में अपने आयु वर्ग में गोल्ड मैडल से सम्मानित किया गया था।
मां को भजन गाने का भी शौक था। मंदिर में गाती थी। कविता दोहे सब याद रहता था। उनको सिलाई का भी शौक था, जो उन्होंने अपनी माँ से सीखी थी। वे मुजफ्फरनगर में लड़कियों को सिलाई सिखाती थीं, उनको सिलाई का शौक बना रहा।
सितम्बर 2020 में जब मुझे ‘दिल्ली फाउंडेशन ऑफ डीफ वीमैन’ से ‘भारत की बेटी’ सम्मान मिला, तो माँ बहुत ख़ुश थी। वह मुझे अपने पैरों खड़े होते देखना चाहती थी। उसका वही सपना पुरा हुआ था। जब मै सुसराल से घर आई थी, तो इसमें मुझे पूरा सहयोग दिया था। मां को पता था कि मैं पढ़ाई मे कमजोर थी। पापा और मां मुझे बहुत अच्छे से पढ़ाते थे। इसके परिणामस्वरूप मुझे ‘दिल्ली फाउंडेशन ऑफ डीफ वीमैन’ से दो बार सामान्य ज्ञान में प्रथम श्रेणी आने का पुरस्कार मिला, जिसका कि मां को सालो से इंतजार था।
नवम्बर 2020 में दिवाली के बाद से मां की तबियत बिगड़ी गयी थी। सब इलाज किया तो ठीक नहीं हुई थी। फिर मेरे मामाजी के दोस्त के अस्पताल में सारी जाँचें करायी थीं, तो जनवरी 2021 में पता चला कि मां को कैंसर हो गया था। 3 महीने तो वे अस्पताल में रही थीं। इलाज की कोई आशा नहीं रह गयी थी, तो डाक्टर ने कहा कि इनको आप घर ले जाओ। 31 मार्च को घर आ गये थे। डाक्टर ने कहा था कि अब 15 दिन तक ही जीवित रहेंगी, लेकिन वे दो महीने रही थीं अप्रैल और मई। 29 मई 1921 की सुबह मां चली गयी थी। मैं नहीं चाहती थी कि माँ हमें छोड़कर जाये। लेकिन वह बहुत कष्ट उठा रही थीं, इसलिए एक दिन मैंने ईश्वर से प्रार्थना की कि उनको मुक्ति दे दो। इसके कुछ घंटे बाद ही माँ हमें छोड़कर चली गयीं।
मां के लिए यही कहुंगी कि वह एक शेरनी जैसी हिम्मत वाली थी। हमेशा किसी काम से नहीं डरती थी। बहुत मिलनसार थीं। लोगों को अच्छी सलाह देती थी। मिल-जुलकर रहती थीं। बहुत एक्टिव थीं। नित्य योगा और व्यायाम किया करती थी। लगता है कि आज भी माँ मेरे साथ है। इससे मुझे भी हिम्मत मिलती रहती है।
— सारिका भाटिया