स्त्री – पुरूष
स्त्री, सुनो आज तुम,
मेरी बात व्यर्थ न लेना,
तुम जो तारीफ करती हो,
अनजान ,दूसरे पुरूष की,
वो तुमको शोभा नहीं देता,
संस्कार गलत है तुम्हारे ,
तभी तुम उनकी तारीफ ,
करती रहती हो …
स्त्री जो सुन रही थी अब तक बोली
सुनो ,पुरूष तुम आज मेरी भी ,
मैं कुछ न बोली आज तक ,
जब तुम तुलना मेरी करते ,
दूसरी स्त्री से हरदम ,
दूसरी स्त्री की तारीफ करते नही थकते,
क्योंकि मुझे विश्वास है तुम पर ,
लेकिन …
आज तक सोचा नहीं तुमने ,
क्यों कि पुरुष की तारीफ,
तुम्हारे सामने
सुनो आज तुम क्यों करती तारीफ मैं
किसी पुरूष में नज़र आता अक्स पिता का ,
नज़र आता भाई किसी के चेहरे में ,
किसी की मुस्कान में दोस्त बचपन का दिखता,
किसी की बातें राह नई बताती मुझे ,
आत्मविश्वास भरते थे कभी शिक्षक ,
वही विश्वास भरता वो पुरूष ,
सम्मान मेरी नज़र में पाता हरदम ,
लेकिन पुरूष हो तुम तो ,
सोचा भी पुरूष बन कर ही तुमने ,
कभी तो पुरूष के आवरण से ,
निकल बाहर सोचते तुम ,”पुरूष”
— डॉ सारिका औदिच्य