क्या आप तीन अनादि पदार्थों को जानते हैं?
ओ३म्
हम संसार में जन्म लेकर आंखों से अपने सम्मुख विचित्र संसार को देखते हैं तो इसकी सुन्दरता एवं विविध पदार्थों को देखकर उन पर मुग्ध हो जाते हैं। यह संसार किससे, कब व कैसे बना? ऐसे प्रश्न बुद्धिमान व कुछ ज्ञान रखने वाले मनुष्य के मन में उपस्थित होते हैं। इसका प्रायः यही उत्तर मिलता है कि इसकी रचना परमात्मा ने अपनी अनन्त शक्ति व सामथ्र्य से की है। फिर प्रश्न उठते हैं कि वह परमात्मा कहां है, कैसा है, उसने इस संसार को क्यों बनाया है? यह संसार किसके उपयोग एवं उपभोग के लिये बनाया गया है। बुद्धि से विचार करने पर यह विश्वास नहीं होता कि कोई ऐसी सत्ता भी हो सकती है जो इस विशाल संसार को बना सकती है जिसका न आरम्भ है और न अनन्त। परमात्मा ने इस विशाल संसार को बनाया है, हमारी स्थिति यह है कि हम इस संसार को न तो पूरा देख ही सकते हैं और न इसको जान ही सकते हैं। ऐसे विशाल व अनन्त परिमाण वाले संसार को ईश्वर ने कब व कैसे बनाया होगा? यह जानने की उत्सुकता और अधिक बढ़ जाती है। इन प्रश्नों के उत्तर मत-मतान्तरों के ग्रन्थों में सुलभ नहीं होते। इससे उन ग्रन्थों की अपूर्णता सिद्ध होती है। मत-मतान्तरों के ग्रन्थों में अनुमानित व अविद्यायुक्त बातें मिलती हैं जिससे ज्ञान व विज्ञान के अध्येता नास्तिक अर्थात् ईश्वर में विश्वास न रखने वाले बन जाते हैं। उन लोगों की पहुंच वेद एवं वैदिक साहित्य तक नहीं होती और न उन्हें उम्मीद होती है कि इस सृष्टि का सत्य-सत्य ज्ञान वेद और वैदिक साहित्य में हो भी सकता है। वेद एवं वैदिक साहित्य के संस्कृत में होने तथा अंग्रेजी व विदेशी भाषाओं में न होने के कारण भी विदेशियों का ध्यान वेदों व वैदिक साहित्य की ओर नहीं जाता। हम उसी साहित्य से लाभ उठा सकते जिस भाषा में रचित साहित्य की भाषा का हमें ज्ञान होता है। सृष्टि के रहस्यों से जुडे़ सभी प्रश्नों का युक्तियुक्त उत्तर हमें वेद एवं वैदिक साहित्य में प्राप्त होता है। ऋषि दयानन्द सरस्वती ने भी अपने वेदों के गम्भीर अध्ययन, योग एवं उपासना आदि की उपलब्धियों के द्वारा वेद में वर्णित ईश्वर, जीवात्मा व सृष्टि सहित इस संसार से जुड़े़ प्रायः सभी असम्भव से प्रश्नों के उत्तरों को जाना था। इससे सम्बन्धित विचार व युक्तिसंगत कुछ उत्तरों को हम इस लेख में प्रस्तुत करने का प्रयत्न करते हैं।
वैदिक सिद्धान्त है कि संसार में तीन पदार्थ ईश्वर, जीव तथा प्रकृति की अनादि सत्ता है। अनादि का अर्थ है जिसका आरम्भ नहीं है। आरम्भ उसका नहीं होता है जो आरम्भ से भी पहले से विद्यमान हो। इसे संस्कृत के अनादि शब्द में बहुत ही उत्तमता से कहा गया है। यह ईश्वर, जीव तथा प्रकृति तीनों सत्तायें स्वयंभू सत्तायें हैं। स्वयंभू सत्ता से हमारा अभिप्राय इतना है कि इनको उत्पन्न करने वाली अन्य कोई चेतन व जड़ सत्ता नहीं है। ईश्वर की ही बात करें तो यह एक अनादि अर्थात् जगत में अनादि काल से मौजूद सत्ता है। यह न तो अपने आप उत्पन्न कही जा सकती है और न ही इसको उत्पन्न करने वाला कोई अन्य ईश्वर व इसके माता-पिता आदि कोई हैं। ऐसी ही अन्य दो सत्तायें जीवात्मा एवं प्रकृति भी हैं। ईश्वर संख्या की दृष्टि से एक सत्ता है जबकि जीवात्मायें संख्या की दृष्टि से अनन्त हैं जिसे ज्ञानी से ज्ञानी मनुष्य भी जीवात्माओं की संख्या की गणना कर जान नहीं सकते। ईश्वर के ज्ञान में जीवात्माओं की संख्या गण्य हैं। उसे प्रत्येक जीवात्मा का ज्ञान है व वह सबके प्रति अपने स्वनिर्धारित कर्तव्यों का पालन करता है जैसा कि उसने हमारे प्रति किया व कर रहा है। प्रकृति के परिमाण पर विचार करें तो यह भी अनन्त परिणाम से युक्त सत्ता है।
ईश्वर इस प्रकृति से ही इस सृष्टि वा कार्य जगत् की रचना करते हैं। प्रकृति को सृष्टि का उपादान कारण कहा जाता है। उपादान कारण वह होता है जिस पदार्थ से कोई वस्तु बनती है। यह उपादान कारण भौतिक व जड़ पदार्थ ही होता है। ईश्वर व आत्मा में प्रकृति के समान विकार नहीं होता। प्रकृति से ईश्वर महतत्व, अहंकार, पांच तन्मात्राओं, पंच स्थूल भूत, सूक्ष्म शरीर के अवयवों ज्ञान एवं कर्म इन्द्रियों, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आादि को बनाता है। हमारा स्थूल शरीर हमारे सूक्ष्म शरीर का विकसित रूप कहा जा सकता है। हम जो संसार देखते हैं वह प्रकृति तत्व व सत्ता की विकृतियां हैं जिसमें अपौरुषेय विकृतियां वा रचनायें परमात्मा ने की हैं। अतः ईश्वर, जीव तथा प्रकृति अनादि, नित्य, अमर, अनन्त, नाशरहित सत्तायें हैं यह हमें ज्ञात होना चाहिये।
अनादि तीन सत्ताओं के जानने के बाद, यह सृष्टि परमात्मा ने कब, क्यों, कैसे व किसके लिये रची, इसके वैदिक साहित्य वा सत्यार्थप्रकाश के समाधानों को प्रस्तुत करते हैं। परमात्मा एक सर्वज्ञ सत्ता है। उसे अनादि काल से प्रकृति से सृष्टि को बनाने, पालन करने व संहार करने का विज्ञान विदित है। यह सृष्टि प्रवाह से अनादि है। इसका अर्थ है कि इस सृष्टि से पूर्व प्रलय थी, उससे पूर्व सृष्टि और उससे पूर्व प्रलय व सृष्टियां थीं। किसी सृष्टि को प्रथम सृष्टि नहीं कहा जा सकता क्योंकि इससे पूर्व भी प्रलय व सृष्टि का अस्तित्व था। हमारी इस सृष्टि के अनुरूप ही ईश्वर इससे पूर्व अनन्त बार ऐसी सृष्टियां बना चुका है और आगे भी बनाता रहेगा। इस कार्य में कभी बाधा व अवरोध उत्पन्न नहीं हो सकता क्योंकि यह कार्य ईश्वरीय कार्य है जो सदैव ईश्वरीय नियमों पर आधारित होकर चलता रहता है। किसी जीवात्मा व जड़ प्रकृति में ईश्वर के किसी नियम का विरोध करने की शक्ति नहीं है। यह दोनों सत्तायें ईश्वर के वश व पूर्ण नियंत्रण में हैं। अतः ईश्वर ही इस सृष्टि का स्रष्टा एवं नियामक है। इसका अन्य कोई मान्य उत्तर सम्भव ही नहीं है। यह वैदिक मत व सिद्धान्त ही सत्य सिद्धान्त है जिसे देर सबेर विज्ञान को भी स्वीकार करना है। कुछ ऐसे वरिष्ठ व प्रसिद्ध वैज्ञानिक भी हुए हैं जो ईश्वर की सत्ता की ओर इशारा कर गये हैं। इससे सम्बन्धित पं0 क्षितिज वेदालंकार की पुस्तक ‘ईश्वर: संसार के प्रसिद्ध वैज्ञनिकों की दृष्टि में’ पठनीय है।
ईश्वर का स्वरूप कैसा है? इसका उत्तर हम ऋषि दयानन्द के शब्दों में देते हैं जिससे अच्छी ईश्वर की परिभाषा व स्वरूप का उल्लेख वैदिक साहित्य में कही उपलब्ध नहीं होता। ऋषि के शब्द हैं ‘‘ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है।” इन शब्दों में यह भी जोड़ा जा सकता है कि ईश्वर सर्वज्ञ है, वह जीवों के कर्मानुसार उनको विभिन्न योनियों में जन्म देता, उनके कर्मों का साक्षी होता है, उनकी मृत्यु एवं पुनर्जन्म की व्यवस्था उसी के हाथों में है, वह परमात्मा ही सृष्टि के आरम्भ में जीवों के कल्याण के लिये चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद का ज्ञान चार ऋषियों के माध्यम से देता है। वेदों का ज्ञान सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी ईश्वर चार ऋषियों की आत्माओं में देता व स्थापित करता है। इस प्रकार ज्ञान देना सम्भव कोटि में आता है। हम मानते हैं कि वैज्ञानिकों व विचारकों को चिन्तन व मनन करते हुए जो ज्ञान की नई प्रेरणायें प्राप्त हुआ करती हैं, वह भी परमात्मा के द्वारा ही उनकी आत्माओं में करने से होती हैं। मनुष्य व सभी प्राणियों का जीवात्मा एक समान वा एक जैसा है। जीवात्मा का स्वरूप कैसा है? जीवात्मा चेतन, अल्प ज्ञान तथा कर्म करने की शक्ति से युक्त है। यह सूक्ष्म, एकदेशी, ससीम, अनादि, नित्य, अमर, अविनाशी, जन्म-मरण धर्मा, शुभाशुभ कर्मों का कर्ता व उनके सुख व दुःखरूपी फलों का भोक्ता है। यह वेदानुसार कर्म करके धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त होता है। पूर्व कालों में अनेक जीवात्मायें वैदिक कर्म ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र यज्ञ, माता-पिता-आचार्यों की सेवा व सत्कार, परोपकार, दान आदि कर्मों के द्वारा ईश्वर साक्षात्कार कर मोक्ष को प्राप्त हो चुकी हैं। अनादि काल से यह क्रम चल रहा है और अनन्त काल तक ऐसा ही चलता रहेगा। ईश्वर, जीव तथा प्रकृति क्योंकि अनादि व अमर है अतः सृष्टि की रचना, पालन व प्रलय का क्रम अनन्त काल तक निरन्तर चलता रहेगा, यह कभी अवरुद्ध नहीं होगा, यह सुनिश्चित है।
वैदिक गणना के अनुसार इस सृष्टि की उत्पत्ति एक अरब छियानवें करोड़ आठ लाख त्रेपन हजार एक सौ इक्कीस वर्ष पूर्व ईश्वर से हुई है। ईश्वर सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान तथा सर्वव्यापक है। सृष्टि की रचना व पालन करना उसका स्वाभाविक कर्म है। इस कार्य को करके उसे कोई कष्ट, पीड़ा अथवा थकान आदि विघ्न नहीं होते। जिस प्रकार से हमारे श्वांस चल रहे हैं और जिस प्रकार हम आंखों की पलक झपकते रहते हैं, हमें ऐसा करने से कोई पीड़ा व थकान नहीं होती, ऐसा ही हम ईश्वर के सृष्टि रचना और इसके पालन के कार्य को कुछ कुछ समझ सकते हैं। सृष्टि की रचना व पालन आदि कार्यों से ईश्वर को किंचित व किसी प्रकार का कष्ट आदि नहीं होता। ईश्वर ने यह सृष्टि अपनी शाश्वत प्रजा जीवों को उनके पूर्वकल्पों व जन्मों के कर्मों के फल देने के लिये बनाई है। ईश्वर सृष्टि का कर्ता है, भोक्ता नहीं है, परन्तु जीवात्मा इसका कर्ता नहीं अपितु केवल भोक्ता है। इसी कारण कर्म फल बन्धन जीवात्मा पर ही लगता है। जीवात्मा मनुष्य जन्म में ज्ञान प्राप्त कर ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना तथा अग्निहोत्र सहित माता-पिता-आचार्यों की सेवा-सत्कार, परोपकार, दान एवं देश व समाजोन्नति के कार्यों को करके अपने जीवन को मोक्ष प्राप्ति तक ले जा सकती हैं। इसके लिये सभी मनुष्यों को प्रयत्न करने चाहिये। इस उद्देश्य की प्राप्ति में वेदाध्ययन एवं वेदों का प्रचार मनुष्य का कर्तव्य निश्चित होता है। हमें अपने कर्तव्यों के प्रति सजग रहते हुए उनका पालन करना है। इसी में हमारे जीवन की सफलता है। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य