महीना सावन का
महक गया है कोना -कोना
अब मन मंदिर के आँगन का
दिल की हर इक कली खिली
जो लगा महीना सावन का
हरियाली फैली है चहु दिश
फूलों में उन्माद भरा है
धरा निखरकर यूँ शरमाई
ज्यों दुल्हन को रूप चढ़ा है
मोर पपीहे कूंक रहे है
जो समा हुआ मनभावन सा
दिल की हर इक कली खिली
जो लगा महीना सावन का
घूम रही हैं सभी गुजरिया
पहन – पहनकर हरे घाघरे
लोकगीत गूँजे है चहु दिश
झूलों से भर गये बाग रे
कुछ बूँदे जो पड़ी धरा पर
घर आँगन लगता पावन सा
दिल की हर इक कली खिली
जो लगा महीना सावन का
रिमझिम-रिमझिम बरखा से ही
मौसम का अलग अन्दाज़ हुआ
माटी की सोंन्धी ख़ुशबू से
महका -महका हर साज़ हुआ
ये मन मयूर छम-छम नाचा
बस झूम उठा बंजारन सा
दिल की हर इक कली खिली
जो लगा महीना सावन का।।
— अनामिका लेखिका