ग़ज़ल
ज़रा-ज़रा -सा सुकूँ दिल को जब भी आता है
मेरे ख़याल का पैकर ही मुस्कुराता है ।
अगर है इश्क़ तो दुश्वारियों का डर कैसा
गुहर भी मुफ़्त कहाँ कोई शख़्स पाता है ।
जिसे कुई भी सलीका नहीं है जीने का ,
शुऊर जीने का सबको वही बताता है ।
हयात कहके बुलाता था जो कभी मुझको,
वो ग़ैर कहके मुझे मुस्तक़िल रुलाता है ।
भले ही बात न वो अब कभी करे मुझसे,
मुझे रुलाके कहाँ वो भी चैन पाता है ।
जिसे हुनर ही नहीं आशियाँ बनाने का
वही तो रोज़ परिंदों का घर गिराता है ।
‘किरण’ की राह में अब नूर बनके आ जाओ
क्यूँ दूर रहके यूँ बेचैनियाँ बढ़ाता है ।