बिम्ब प्रतिबिम्ब (भाग 1)
“… और गेंद जा रही है डीप फाइन लेग की तरफ, जहाँ दर्शन तेजी से गेंद की ओर झपट रहे हैं… इधर बल्लेबाज दूसरे रन के लिये दौड़ पड़े हैं. दर्शन ने गेंद को दायें हाथ से उठाया और तेजी से फेंका है गेंदबाजी वाले छोर पर… भागते हुए बल्लेबाज के बगल से निकल कर गेंद विकेट में जा लगी है, और… आऊट… अंपायर को कोई शुबहा नहीं, उनकी उंगली उठ गयी है, और मुरसलीम अपने पचास रन पूरे करने से पहले ही रन आउट होकर वापस पैवेलियन को लौट रहे हैं….” कमेंटेटर की आवाज में जोश था, मैदान में सारे खिलाड़ी टीम-हडल बना रहे थे, जिसमें दर्शन भी था. लेकिन मैं टीवी पर भी देख रहा था कि दर्शन में वह उत्साह नहीं था जो बाकी खिलाड़ियों में दिख रहा था. आखिर एक रिकार्डधारी आलराउंडर भी तेरहवें खिलाड़ी के रूप में फील्डिंग करना पसंद तो नहीं ही करेगा ना. और कभी उसके पिताजी भी इसी प्रकार ग्यारह से बारह में, फिर बारह से सोलह में और फिर बिलकुल बाहर हो गये थे.
दर्शन के पिता हरमीत सिंह मेरे अच्छे मित्र थे. मैं अभियांत्रिकी का मेधावी छात्र था और वे खेल कोटे से वकालत में साल दर साल परीक्षा पास कर लेते थे. वे हमारी विश्वविद्यालय टीम के कप्तान थे, और अकेले आधी टीम के बराबर खेलते थे. पाँचवे विकेट पर बल्लेबाजी करते हुए अक्सर नवें दसवें विकेट के लिये साझेदारी करते थे. गेंदबाजी में दायें हाथ के तेज गेंदबाज थे जबकि भारत में स्पिन का दौर चल रहा था. क्रिकेट के जानकार जानते हैं कि अकेला तेज गेंदबाज उतना सफल नहीं होता जितना अपने जोड़ीदार के संग, और हरमीत को कोई अच्छा जोड़ीदार नहीं मिला. न तो हमारी विश्वविद्यालय की टीम में, न रणजी टीम में और न उनके खेले दो टेस्ट मैच में भी… लम्बे समय तक, वे बल्लेबाजों को अभ्यास करवाने के लिये भारतीय टीम के संग बने रहे, अतिरिक्त खिलाड़ी के तौर पर… हम दोनों तब तक विश्वविद्यालय में नौकरी करने लगे थे, मैं अध्यापन में और वे शारीरिक शिक्षक के पद पर.
हरमीत ने मन ही मन कुछ ठान रखा था, और उसे पूरा करने में वे लगे रहे. संयोग से उनकी पत्नी और हमारी श्रीमतीजी गृहविज्ञान में स्नातकोत्तर सहपाठी थीं, अतः हमारी खेल के मैदान की दोस्ती पारिवारिक दोस्ती में कब बदल गयी, पता नहीं चला. प्रतिभा के साथ न्याय न हो पाने का मलाल उनको बहुत गहरे तक सालता था, जिससे बाहर निकलने का तरीका उन्होंने अपने ही तरीके से खोज निकाला.
उनका बेटा दर्शन अभी तीन साल का भी नहीं हुआ था कि क्रिकेट का छोटा सा बैट लेकर पिताजी के संग सवेरे शाम मैदान पर दिखने लगा था. कुछ तो पिताजी की आनुवांशिक विरासत, कुछ खुद की प्रतिभा, कुछ पिताजी के जुटाये संसाधन-संपर्क और रही सही कसर माँ द्वारा निर्धारित कम वसा की पौष्टिक खुराक ने पूरी कर दी. दस साल का होने तक दर्शन अन्डर फॉर्टीन में खेलने लगा. वहाँ से अंडर नाइन्टीन और अठारहवें वर्षगाँठ पर ही उसे भारतीय टीम में ले लिया गया.
जब दर्शन भारतीय टीम में चयनित हुआ तब तक वह छः फुट तीन इंच का छरहरा सरदार बन चुका था. शरीर में वसा उतना ही था जितना होना चाहिये, और इससे उसकी मांसपेशियाँ अधिक सशक्त हो गयी थीं. मितभाषी, मृदुभाषी और धीरज से भरपूर दर्शन अब भारतीय टीम में अपने जलवे दिखाने के लिये तैयार था. दर्शन का टेस्ट टीम में चयन हम सभी के लिये बेहद शुभ रहा, क्योंकि इससे विश्वविद्यालय को नाम मिल रहा था और हमारा मित्र मंडल फिर से जुड़ रहा था, जिसमें देश विदेश की कई प्रतिभाएँ शामिल थीं.
हरमीत भाई भी मेरे कार्य में उतनी ही रुचि लेते थे, जितनी मैं क्रिकेट में. और इसलिये वह अक्सर मेरे साथ न्यूरॉन, मांसपेशियों और मस्तिष्क की कार्य प्रणाली पर वार्तालाप करते थे. उनकी यह जिज्ञासा या रुचि यूँ ही नहीं थी. कई वर्षों तक स्तरीय क्रिकेट खेलने के कारण वे जानते थे कि इन तीनों का दक्ष संतुलन ही खेल में कौशल की कसौटी है. और इसीलिये हम दोनों अक्सर दर्शन के रिफ्लेक्स सुधारने के लिये व्यायाम तथा खुराक का अपडेट करते रहते थे.
दर्शन ने अपना टेस्ट कैरियर आशा के अनुरूप अच्छा ही किया. वह दाँये हाथ का विस्फोटक बल्लेबाज था और साथ ही दाँये हाथ से तेज गेंद भी फेंका करता था. हरमीत के कड़े अनुशासन और सधी हुई दिनचर्या के चलते वह तेजी से सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ता गया.
लेकिन, सब दिन एक समान नहीं होते. विपक्षी टीमें हर खिलाड़ी का वीडियो बार बार देख कर उसकी क्षमता और कमजोरी परखती थीं. साथ ही, देश में भी एक से एक प्रतिभावान खिलाड़ी निकलने लगे. इस प्रकार के दोहरे दबाव को झेलना आसान नहीं होता, और विशेषकर तब, जब एक सफलता पर मीडिया आसमान पर चढ़ा देता और एक असफलता पर धूल में पटक देता.
ग्यारह साल देश के लिये खेलने के बाद, दर्शन का प्रदर्शन अपने चरम से उतार पर था. वह छः हजार टेस्ट रन बना चुका था और छः सौ विकेट लेने से मात्र चार विकेट दूर था. लेकिन अब उसे टेस्ट खेलने के मौके मिल नहीं रहे थे, और नतीजा यह था कि छः हजार रन तथा छः सौ विकेट लेने का असंभव सा कारनामा उसके लिये इतना समीप होकर भी असंभव लग रहा था.
हरमीत व दर्शन ने जितने मित्र बनाये थे, अपनी प्रतिभा तथा स्पष्टवादिता से उतने ही शत्रु भी. और अब मित्रों की अपेक्षा शत्रुओं का बोलबाला अधिक हो चला था. लिहाजा, अब दर्शन यदि अंतिम सोलह खिलाड़ियों में शामिल भी हो जाता, तो भी या तो बेंच पर ही बैठा दिखता या स्थानापन्न होकर फील्डिंग करता. यह अलग बात है कि उसके नियमित अभ्यास, जुझारूपन तथा खेल के प्रति समर्पण ने उसकी ऊर्जा को कम नहीं होने दिया. वह जब भी फील्डिंग करता बीस तीस रन बचाने या दो तीन विकेट निकालने में योगदान जरूर देता. शायद इसीलिये, वह लगातार टीम का हिस्सा बना ही रहता.
इधर, हरमीत और दर्शन लगातार अखबार की सुर्खियों में बने रहते, और उनके बगल के घर में रहते हुए गत कई वर्षों से मैं जिस शोध में जुटा था, उसमें सफलता बहुत निकट थी. मैं दर्शन के संग मीडिया के व्यवहार को देख कर अतिरिक्त सतर्कता बरतता. प्रयास यही रहता कि हमारे परिणाम मात्र वैज्ञानिक शोधपत्रों में ही छपें, अपरिपक्व मीडिया की बचकानी जिज्ञासा की भेंट न चढ़ें. मेरी प्रयोगशाला में मस्तिष्क के न्यूरॉन की कॉपी करने की तकनीक अपने परीक्षण के अंतिम दौर में थी. हम सभी को आशा थी कि इस तकनीक के सफल हो जाने पर अल्जाइमर, मस्तिष्क के कैंसर तथा दुर्घटना में स्मृतिलोप होने पर हम पीड़ितों को पुनः उनकी मूल स्मृति का बहुत सा भाग लौटा पायेंगे.
हरमीत भाई ने कंधे पर हाथ रखा तो मैं पुनः विचारों की शृंखला से आजाद होकर वर्तमान में लौट आया. हरमीत भाई बहुत खुश थे. दर्शन के सजग क्षेत्ररक्षण ने उसके अंतिम ग्यारह में शामिल होने की आस फिर से जगा दी थी. और यदि वह अंतिम ग्यारह में दो चार अवसर पा जाये तो छः हजार रन और छः सौ विकेट का अटूट कीर्तिमान अपने नाम कर ही लेगा, ऐसा उनका विश्वास था. मुझे भी उनके विश्वास में शामिल होने में कोई झिझक नहीं हुई.
तीन महीनों बाद अगली शृंखला आरंभ होने को थी. दर्शन के कई प्रतिद्वंदी भी अच्छा खेल रहे थे. कम उम्र होने के कारण उन्हें वरीयता मिलनी तय थी… टीम की घोषणा हुई, मैं और हरमीत भाई साथ ही बैठे थे, क्रिकेट बोर्ड के सचिव टीवी पर नाम ले रहे थे… पन्द्रह खिलाड़ियों के नाम लिये जा चुके थे, पर दर्शन का नाम नहीं आया. हरमीत भाई के चेहरे पर रंग आते और फिर चले जाते. तभी सचिव महोदय ने अंतिम नाम लिया, “और दर्शन सिंह”.
दर्शन अपने मन के भाव छिपाकर बैठा था. वह निर्लिप्त सा दिखने का प्रयास कर रहा था. उसके पिताजी का सपना था कि वह ऐसा कीर्तिमान बनाये, जो किसी के लिये तोड़ पाना संभव नहीं हो, और उस सपने को पूरा करने में दर्शन ने अपना पूरा जीवन लगा दिया था. अब तीन माह की प्रतीक्षा थी, तीन माह बाद उसे अंतिम ग्यारह में खेलने का अवसर मिलेगा या नहीं, यह अनिश्चित था, पर इसके लिये प्रतीक्षा के सिवा कोई और रास्ता मुझे दिख नहीं रहा था.
— रंजन माहेश्वरी