बिम्ब प्रतिबिम्ब (भाग 3)
शेखर ने हमें एक जादू सा दिखाया था, मुझे उसके सम्मोहन से निकलने में कुछ समय लगा, पर हरमीत का मन तबतक कुछ निश्चित कर चुका था.
“शेखर, प्राऽ… तुस्सी छा गये… मैं आ रिया सी तैनूं झफ्फी देने…” और हरमीत तुरंत मेरी लैब से बाहर निकल गये…
हरमीत झफ्फी देने अकेले जायेँ, ऐसा होना नहीं था, अतः दर्शन और मैं भी हरमीत के संग अमेरिका रवाना हो गये. पूरे रास्ते, हरमीत किसी न किसी उधेडबुन में लगे रहे, कभी टायलेट पेपर पर कुछ चित्र बनाते, कभी कुछ लिखते, कभी पानी की बोतल दायें हाथ से उठाते तो कभी बायें हाथ से. एक दो बार वे दर्शन के दोनों हाथों को पास पास रख कर देखते हुए पाये गये, तो एक बार दर्शन के चेहरे को अपने दोनों हाथों में थाम कर उसकी आँखों में देखते हुए दिखे. उनके मन में जो चल रहा था, उसे वे सफल गेंदबाज की तरह चेहरे पर आने से रोक रहे थे.
नेवार्क हवाई अड्डे पर उतरने से शेखर के घर तक का सफ़र लगभग तीन घंटे में पूरा हुआ, मैं शेखर की स्टेशन वैगन की पिछली सीट पर दर्शन के संग बैठा था… आगे हरमीत और शेखर कुछ पंजाबी हिन्दी तो कुछ मुंबईया हिन्दी में पुरानी यादें ताजा कर रहे थे… लगभग आधे रास्ते के बाद हरमीत ने काम की बात छेड़ी. वे जानना चाहते थे आइगन आईने के बारे में.
शेखर ने बताया, हम किसी भी वस्तु को जब शीशे या दर्पण में देखते हैं, तो वह दायें से बायें और बायें से दायें में बदल जाती है. क्योंकि दर्पण हमारे सामने खड़ा होता है. पर यदि दर्पण धरती पर लेटा हो और उसमें हम कोई प्रतिबिम्ब देखें तो वह हमें उलटा लटका नजर आयेगा. लेकिन दर्पण की अपनी सिर्फ लम्बाई और चौड़ाई ही होती है, वह गहराई का मात्र हमें आभास देता है. लेकिन विज्ञान के कुछ गुप्त रहस्य हैं, जिन्हें अगर ठीक से लागू किया जाये तो आभास वास्तविकता में बदल जाता है. कुछ कुछ वैसे ही जैसे उत्तल लेंस से नजदीक से देखने पर आभासी प्रतिबिंब बनता है, लेकिन फोकस दूरी से दुगुनी दूर स्थित बिन्दु पर प्रतिबिंब वास्तविक बनता है.
शेखर ने परमाण्विक दोलन की एक विधा खोजी थी जिसमें किसी भी वस्तु का दोलन नियंत्रित कर उसे दायें से बायें में बदला जा सकता था. लेकिन यह बदलाव इतना जटिल था कि इस हेतु उपकरण बनाने में शेखर को आठ वर्ष लग गये. लगभग आठ बिलियन डॉलर के खर्च से शेखर के विश्वविद्यालय पर भारी भरकम कर्ज भी चढ़ गया था, जिसे उतारने के लिये तकनीक का शीघ्र व्यावसायिक उपयोग होना आवश्यक था.
अब हरमीत ने पूछा, “प्रा, तुस्सी आदमी पे ये परयोग कित्ते हो?”
शेखर ने हरमीत की ओर देखा, “पाजी, मैंनू मरना है की? अमेरिका में आदमी पे प्रयोग करना बहुत मुश्किल है. सबसे पहले तो इसकी इजाजत नहीं मिलेगी, दूसरे, अगर उसको कुछ हो गया तो मेरी नौकरी तो जायेगी ही, जितना कर्जा अभी चढ़ा है उससे भी ज्यादा मुकदमे और मुआवजे में चला जायेगा. ये चूहे वाला प्रयोग भी मैंने चुपचाप किया है, और इसीलिये आप लोगों को भेज कर चेक करवा रहा था. कि सब ठीक है ना.”
“ओ सब छड, यार. शेखर प्रा, मैं तैंनूं एक गल दस्सां. मैं त्वाडा चूहा बणने को तैयार हूँ. असी मर भी गये तो कोई गल नहीं. तू मैंनू दस की करणा है.”
शेखर ने अविश्वास से हरमीत को देखा. हरमीत शुरू से ही ऐसे ही थे. किसी भी दोस्त को कोई काम पड़े तो हाजिर. किसी का कोई काम अटके तो हाजिर और खतरे उठाने को सदा तैयार… खैर, तब तक हम घर पँहुच गये और शेखर ने हमें हमारे कमरे बिस्तर तक का रास्ता बता दिया.
अगले दिन, शेखर हमें अपनी प्रयोगशाला में ले गया. बहुत सारे उपकरणों और प्रणालियों को देखकर हम अंत में आइगन आईने वाले भाग में पँहुचे. वहाँ एक वृहद् मैग्नेट्रॉन के संग कई पाइप और पंप आदि लगे थे. शेखर ने बताया कि इस प्रयोग में द्रव हीलियम का बहुत उपयोग होता है, क्योंकि तापमान लगभग पाँच डिग्री केल्विन, यानि सामान्य तापमान से लगभग तीन सौ डिग्री नीचे, रखना पड़ता है. हीलियम को बेहद किफायत से उपयोग किया जा रहा है. और, फिलहाल यह प्रयोग सप्ताह में एक बार ही किया जा रहा है.
हरमीत ने शेखर और मुझे पास आने का इशारा किया. दर्शन पहले ही उसके पास खड़ा था. हरमीत ने कहा, ” शेखर प्रा, मैं जो कह रहा हूँ ध्यान से सुन. तू मेरे पुत्तर नाल परयोग कर. मैं हरमीत सिंघ तैनूं लिख के देणे को तैयार सी कि मेरे पुत्तर नाल कोई वी हादसा होंदा ए तो डा. शेखर ओत्था जिम्मेवार नईं.” हरमीत की आवाज में दृढ़निश्चय था और हमने जब दर्शन की ओर देखा तो वह भी सहमति में अपनी गर्दन हिला रहा था.
मुझे हरमीत का दाँव समझ में आने लगा. हरमीत ने देखा था कि प्रयोग के बाद चूहों की स्थिति सामान्य ही थी, बस वे खुद के ही प्रतिबिम्ब बन गये थे. दर्शन का दायें हाथ से बायें हाथ का खिलाड़ी बन जाना उसके कैरियर को फिर से उठा देगा. पर फिर भी कई शंकाएँ थीं जो मैंने शाम के खाने तक विचार करने और फिर हरमीत के संग चर्चा के लिये सुरक्षित रख लीं.
शाम को भोजन पर मेरी आशा के विपरीत, सारी शंकाओं और चिंताओं पर चर्चा में भी हरमीत और दर्शन का विचार अडिग ही रहा. दर्शन ने पहली बार इस चर्चा में भाग लिया था, लेकिन लग रहा था कि क्रिकेटर बाप बेटे लम्बी साझेदारी के लिये अच्छा तालमेल निभा रहे थे. और यह अच्छी नेट प्रेक्टिस के बिना संभव नहीं है.
मैंने सबसे पहला सवाल किया था बायोमैट्रिक पहचान का. इस प्रयोग के बाद दर्शन की अंगुलियों और आँख की पुतली का बायोमैट्रिक बदल जायेगा जो आधार कार्ड जैसी कई योजनाओं में दर्शन को स्वीकार करने से मना कर देगा. इस का जवाब दर्शन ने दिया…
“तायाजी, मेरा एक दोस्त है, करोलबाग में. उसका ऐसा ही लम्बा चौड़ा काम है. उसको फोन कर के आधार कार्ड डिलीट करवा देंगे. फिर इंडिया जाकर नया आधार कार्ड बनवा देंगे.”
“और पासपोर्ट की बायोमैट्रिक का क्या होगा? तुम उसके बिना अमेरिका से निकल भी नहीं पाओगे?”
“तायाजी, अगर ये एक्सपरिमेंट ठीक से हो गया तो रिपोर्ट कर देंगे कि पासपोर्ट गुम हो गया. एम्बेसी से नया पासपोर्ट बनने में दो हफ्ते लगेंगे. नये पासपोर्ट में नये सिरे से बायोमैट्रिक होगी, तो बस…”
“दर्शन! तुम जितना समझ रहे हो, यह प्रयोग उतना आसान नहीं है. अभी तुम्हारे दिमाग में जो भी चीज है वह सब उलट जायेगी. हर आदमी तुम्हें शीशे में दिखती परछाई जैसा दिखेगा. हर अक्षर शीशे में दिखते उलटे अक्षर जैसा दिखेगा. तुम लिखने की कोशिश करोगे तो तुम्हारी लिखावट भी उल्टी हो जायेगी, तुम हिन्दी अंगरेजी और गुरमुखी, ऊर्दू जैसी उलटी लिखोगे. दायें और बायें का सामंजस्य तुम्हारे लिये ज्यादा बड़ी चुनौती होगी, क्रिकेट से भी बड़ी.”
अबकी बार उत्तर हरमीत ने दिया. “प्रा, मैंनू दस्सो. किसकी फोटू है?”
मैंने पहचान लिया, वह हरमीत की पत्नी की फोटो थी, जो वे सदा पर्स में रखते थे और अभी शीशे में मुझे दिखा रहे थे.
“आप मेरी वोट्टी नूं देख के पैचाण गये कि नईं? अरे, अपना पुत्तर है, करेगा करेगा, कर लेगा… शेखर प्रा… अब बस, आईसक्रीम खिलाओ. अब तुस्सी देखो की करणा है…”
शेखर को पता नहीं था कि मामला वाकई इतना गंभीर होगा. उसने मुझसे चर्चा की. हम दोनों शंकित थे कि इसमें कुछ गलती न हो जाये, वरना दर्शन की जान जाने से लेकर. सदा के लिये दिमागी तौर पर अपाहिज होने तक का खतरा था.
क्या यह प्रयोग सफल होगा? अगले भाग में …
— रंजन माहेश्वरी