कहानी

कहानी – चिरकुंवारी नदी

इसे कहानी कहूं भी तो कैसे ? कहीं नदी भी कभी कहानी बनती है क्या ? नदी को तो सिर्फ़ बहते रहना होता है–उद्गम से लेकर सागर तक निरंतर, बिना रुके बिना थके। यही तो नियति है नदी की–कभी न मिल पाने वाले दो किनारों का बंधन और आदि से अनंत की ओर नदी का अनवरत प्रवाह। नदी की इस नियति को न शब्दों में बांधा जा सकता है और न भाषाओं में क़ैद किया जा सकता है। तुम मुझे ख़ुद यही सब तो समझाया करते थे, प्रभात, है न ?
तुमने ही एक बार मुझसे मेरे लिए कहा था कि मैं एक वेगवती नदी हूं, उद्दाम लहरों को अपने आप में समेटे हुए, जो किसी भी क्षण प्यास के तटबंधों को तोड़ सकती हैं। मुझे कितनी खूबी से पढ़ लिया था तुमने, प्रभात। मेरी आत्मा पर अंकित मेरी भावनाओं के निबंध के एक एक शब्द को तुमने बख़ूबी समझ लिया था।
तुम्हारे नेह-बंधन का संबल पाकर मैं भी तो तुमसे बंधती ही चली गई थी, प्रभात। मुझे किनारों का होश ही कहाँ था। मैं तो सिर्फ़ बहती रहना चाहती थी। सब कुछ समेट लेना चाहती थी अपनी लहरों में। काश ! मैं समझ पाती की लहरों में जोश और तटबंधों का बंधन तोड़ देने का उत्साह तो सिर्फ़ चट्टानों की वजह से होता है। समतल भूमि पर तो नदी धीर-गंभीर बनी रहती है।
काश ! तुम मुझे एक चट्टान के रूप में न मिले होते ! हां प्रभात, तुम एक अडिग चट्टान ही तो थे। ऊपर से बेहद गंभीर, कभी न विचलित होने वाले। पर भीतर से अपने आप में ही उलझे हुए। तुम्हें मुझसे ज्यादा कौन पहचान सकता है, प्रभात ! मैंने तो अपने आप को तुमसे जोड़कर तुम्हारे मन के हाशिये पर अंकित एक-एक इबारत को पढ़ा था। तभी तो मैं अधिकारपूर्वक कह सकती हूं कि तुम बहुत मायावी थे, प्रभात !
कितना कुछ याद आ रहा है आज। समझ मे नहीं आता कि आरंभ कहाँ है। यह मन भी बड़ा विचित्र होता है जो सिर्फ़ सुधियों की उपलब्धियां जुटाता रहता है। और एक मादा बंदर की तरह, इन सुधियों के क्षत-विक्षत शव को अपने सीने से लगाये रखता है।
याद है, प्रभात, कॉलेज के दिनों में हम दोनों का मध्यमवर्गीय परिवेश हम दोनों को एक दूसरे के क़रीब ले आया था ? उन दिनों हम अपने वर्तमान को सहेज रहे थे ताकि अपने भविष्य को सार्थकता दे सकें। याद करो, प्रभात ? दिनभर तुम अपनी रिसर्च में व्यस्त रहते और मैं अपनी पढ़ाई में। बीच में लाइब्रेरी में हमारी भेंट हो जाती, तो हम दोनों कैफ़ेटेरिया में बैठ कर एक-एक कप कॉफ़ी के साथ अपनी थकान मिटा लेते। तुम्हारी दिनभर की व्यस्तताओं को देखकर कोई भी, सहज ही अनुमान लगा सकता था कि अपनी रिसर्च के सिवाय तुम्हारी ज़िंदगी का कोई दूसरा मकसद नहीं है। लेकिन सिर्फ़ मैं जानती थी…हां प्रभात, तुम्हारी यह अभागिन संध्या जानती थी कि तुम्हारे पास प्यार और स्नेह से लबालब और स्पंदित एक विशाल हृदय भी है। तभी तो हर दिन मैं बड़ी उत्सुकता से मनभावन शामों की प्रतीक्षा करती थी। वे मधुर शामें जो सिर्फ़ हमारे नाम हुआ करती थीं। और तुम भी हमेशा, अपने दिन भर की थकान से मुक्त, मुझे एकदम तरोताजा और मुस्कराते हुए मिला करते थे।
तुम्हारा वह मनमोहक रूप देखकर मेरा मन-पाखी उल्लसित होकर मुक्त आकाश में उड़ानें भरने लगता। सचमुच, हमारे सामने कितना विशाल विस्तार होता था निस्सीम आकाश का–डूबते सूरज की रक्तिम आभा वाले क्षितिज पर टिका हुआ। पंछी अपनी नीड़ों की ओर लौट रहे होते और हम दोनों अपने बीच खिंचे हुए मौन के मधुरतम पलों को जीते हुए अपनी स्वप्निल आंखों से नभ से उतरती कबूतर सी शामों का इंतज़ार करते। दुनिया के शोरगुल से हटकर , उस निर्जन सन्नाटे में अपने क़दमों की आहट सुनते हुए हम अपने लिए एक ऐसे निर्जन द्वीप की तलाश करते, जहां बैठकर हम दोनों ढेर सारी अर्थहीन बातें कर सकें। ऐसी बातें जिनका न कोई आदि हो न अंत हो।
“संध्या !” मुझे पुकारकर तुम मुझे चौंका देते। मैं ढेर सारी आशाओं को संजोए, मुग्ध होकर तुम्हारी ओर निहारती कि तुम कोई बहुत प्यारी, बहुत अच्छी बात कहो, जिसे अपने मन में संजोए हुए मैं रात भर गुनगुने सपनों में खोई रहूं।
पर तुम मेरा नाम पुकारकर फिर मौन हो जाते। मन-ही-मन मैं उस मौन को परिभाषित करने की कोशिश करती, पर हारकर तुमसे याचना कर बैठती, “कुछ तो बोलो, प्रभात ? कोई ऐसी अच्छी बात कहो जो तुमने आज से पहले कभी न कही हो।”
तुम एक भरपूर नज़र मुझ पर डालते, मेरी बेसब्री का अनुमान लगाते और हौले-हौले मुस्कराने लगते। तुम्हारी उन गहरी आंखों में मुझे ढेर सारे दीपों का प्रतिबिंब नज़र आता, प्रभात। फिर तुम अपनी सधी हुई आवाज़ में, अपने एक-एक शब्द को तौलते हुए मुझसे ही प्रश्न कर बैठते, “हमारे बीच क्या अभी भी कुछ अनकहा रह गया है, संध्या ?”
कितना विषम प्रश्न-जाल होता था वह। कुछ भी तो
अनकहा नहीं रह गया था हमारे बीच। न जाने कितनी बार हम दोनों ने एक दूसरे के साथ जीने-मरने की कसमें खायी थीं। जीवन भर एक-दूसरे का साथ निभाने का वायदा किया था। पर मैं तो एक नारी हूं न, प्रभात। आदिम युग से नारी अपने पुरुष के मुंह से हमेशा कुछ नया सुनना चाहती रही है। अपनी स्वभावगत विवशता के वशीभूत होकर मैं तुमसे जिद करती, “फिर भी कोई बात करो न, प्रभात ? चुप रहने से शाम की ख़ामोशी मनहूसियत में बदलने लगती है।”
“तो सुनो ?” तुम अपने खास अंदाज़ में मुझे छेड़ते, “आज सुबह जब मैं हॉस्टल के अपने कमरे से निकला, तो दिन के नौ बजे चुके थे। सूरज अपनी तीन घंटे की ड्यूटी पूरी कर चुका था। हवा में गर्मी की मात्रा बढ़ रही थी। मैंने कैंटीन में डबल अण्डे के ऑमलेट का नाश्ता किया। अण्डे की तुकबंदी से ख़्याल आया कि कल सण्डे है। अर्थात यदि कैलेण्डर ग़लत नहीं है तो आज शनिवार ही होना चाहिए।”
“बस भी करो, प्रभात।” मैं खीझकर टोक देती, “तुम यह कौन सी बकवास छेड़ बैठे ? इससे तो अच्छा है कि तुम चुप ही रहो।”
तुम शरारत से मुझे देखते और कहते, “तू भी अज़ीब लड़की है, यार। न चुप रहने देती है न बोलने देती है।”
“एकदम बुद्धू ठहरे तुम भी !” मैं भी चिढ़ाती तुम्हें, “ज़रा सोचो तो सही, एक तुम्हारे जैसा समझदार लड़का, शाम के इस निर्जन सन्नाटे में, एक ख़ूबसूरत लड़की के साथ अण्डे और सण्डे की बातें कर रहा है। कोई सुनेगा तो क्या कहेगा भला ?”
“अपना ही माथा पीटेगा, और क्या ?” तुम लापरवाही से कहते, “माथा पीटने वाली तो बात भी है। मैं समझदार और तुम ख़ूबसूरत–एक साथ दो-दो विसंगतियां ?”
मैं कुढ़कर पूछ बैठती, “फ़िर इस निर्जन में हम दोनों किस शाश्वत सत्य की तलाश में अपना समय बर्बाद कर रहे हैं ?”
“सत्य की तलाश एक मृग-मरीचिका है,” तुम फिर छेड़ते मुझे, “यह जगत ही मिथ्या है। एक मायापूर्ण छलावा है। सत्य और माया, इन दोनों का संगम इस असार संसार में असंभव है, संध्या ! आइंस्टीन ने ठीक ही कहा था कि इस संसार में हमें जो कुछ भी जागती आंखों से दिखाई देता है, हो सकता है कि वह सब सपना हो। और जिसे हम सपना समझते हैं, हो सकता है वही हक़ीक़त हो।”
“कभी-कभी तुम मुझे बहुत बोर पर देते हो प्रभात।” मैं चिढ़कर कहती,”मैं दिनभर व्यर्थ में आस लगाए रहती हूं कि कब शाम हो और मैं तुमसे मिलूं, ताकि कुछ स्नेह भरे पल सहेज सकूं।”
तुम मेरी मनःस्थिति को भांपकर, अपने उसी चिरपरिचित अंदाज़ में मुझे अपनी विशाल बाहों में समेट लेते। बिना प्रतिरोध के मैं बाहुपाश में बंधती चली जाती, अपने आप से बेख़बर। मुझे लगता, असीम ख़ुशी के वे पल कभी न खत्म हों। तुम्हारे मज़बूत कंधे पर अपना सर टिकाए हुए, मैं अपने सपनों की दुनिया में खोई हुई, तुमसे अनायास प्रश्न कर बैठती, “मुझे हमेशा इतना ही प्यार दोगे न, प्रभात ? कभी मुझे अपने आप से दूर तो नहीं कर दोगे ?”
मेरे बालों को स्नेह से सहलाते हुए तुम कहते, “पगली, हम लोग बिछड़ने के लिए मिले हैं क्या ? एक दूसरे से बिछड़ जाना तो हम दोनों की मौत होगी, संध्या।”
तुम्हारी बातें सुनकर मेरे मन-प्राण पुलकित हो उठते। वही सब कुछ तो मैं तुम्हारे मुंह से सुनना चाहती थी, कई-कई बार।
क्यों दिया था तुमने मुझे इतना विश्वास, प्रभात ? मैंने तुम्हें लेकर क्यों बनाये थे रंगीन सपनों के घरौंदे ? मैं क्यों न समझ सकी कि यह जीवन, मरुस्थल की तपती रेत में प्यास के कई-कई विंध्याचल लांघने की निरंतर भटकन है। यदि समझ पाती तो उन भटकनों की विवशता का पर्याय तो न बनती। हां, प्रभात, मैं भटकनों और बिखराव का जीता-जागता उदाहरण ही तो बनती जा रही थी उन दिनों।
भटकते हुए जब मैंने जाना कि तुम सचमुच ही मृगतृष्णा हो, तब तक समय हाथ की पकड़ से दूर जा चुका था। तुम्हारे उस झूठे और निष्ठुर विश्वास को मैं अपना सर्वस्व अर्पित कर चुकी थी। तुम्हारी उन आंखों के सतही वशीकरण में बंधकर मैंने अपने समूचे अस्तित्व को छला था। अपने वर्तमान के ख़ुशनुमा फूलों की आहुति देकर मैंने अपने भविष्य के लिए कांटे संजोए थे। मैं जितना भी तुम्हें सहेजने का यत्न करती, तुम मुझसे उतने ही दूर होते जाते। मेरी ख़ुशियों को, जंगल के बीच अकेला पाकर तुमने ठग लिया था, प्रभात।
एक ओर मैं थी–तुम्हें तन-मन से समर्पित एक निरीह तुम्हारी संध्या और दूसरी ओर चकाचौंध भरी दुनिया का रंग-बिरंगा मायाजाल। न जाने वे कौन सी परिस्थितियां होती हैं, जो इंसान को इंसान के प्रति पत्थर बना देती हैं ? हां, प्रभात, विषधरों के बीच जैसे मेरा चंदन-वन बंटने लगा था। तुम्हारा वह मनभावन लगने वाला व्यक्तित्व पाषाण में तब्दील होने लगा था। और तुम एक ऐसी गुफा बन गए जिसमें मैं लावारिस सी भटकने लगी थी। पत्थरों के उस शैक्षणिक संस्थान ने मुझसे मेरा प्रभात छीन लिया था।
प्रभात, यदि तुम मुझसे सब कुछ साफ़-साफ़ कह पाते, तो मुझे इतनी घुटन न होती शायद। तुम्हारी बातों को समझ न पाती, मैं इतनी बिखरी हुई तो नहीं थी। आख़िर हम सब हाड़-मांस के जीव ही तो हैं–अपनी-अपनी विवशताओं की परिधि में असहाय बंदी।
जानती थी, प्रभात, तुम भी तो उलझे हुए थे, दोहरी ज़िंदगी का छलावा जीते हुए। तब भी तुम्हारे पाषाण हृदय में कहीं-न-कहीं, शीतल जल का, कोई छोटा ही सही, झरना ज़रूर था, जिसमें तुम मेरे टूटते और बिखरते अस्तित्व की परछाई देखा करते थे। तुम कहीं गहराई से महसूस करने लगे थे कि तुम्हारी दुविधा मेरे लिए जीवन और मृत्यु का प्रश्न बनती जा रही है।
इतने कमज़ोर तो तुम कभी नहीं थे, प्रभात ? दूसरों के सामने अपने हृदय को खोलकर रख देना ही तो तुम्हारा विशेष गुण था। मैं जानती थी कि तुम उन दिनों अपने मन पर एक अनचाहा बोझ लेकर जी रहे थे। तुम्हारा वह आदर्श कि इंसान को अपने मन पर नहीं, बल्कि अपने कंधों पर बोझ लेकर जीना चाहिए, मेरे सामने अर्थहीन हो गया था। तुम्हारा विशाल व्यक्तित्व एकदम बौना हो गया था मेरे सामने। काश ! एक बार अपना दिल खोलकर तुम सब कुछ मुझे बता देते, प्रभात !
इंस्टिट्यूट में डॉ. मोहिनी कश्यप को कौन नहीं जानता था। पति के द्वारा परित्यक्ता नारी भी, ज़माने की परवाह किये बगैर, इतने ठाठ से अपनी ज़िंदगी बिता सकती है, वे इसका जीता-जागता उदाहरण थीं। हमेशा अफवाहों की परिधि में क़ैद, फ़िर भी निश्चिंत और उन्मुक्त डॉ. मोहिनी कश्यप, आधुनिकता के परिवेश में पूरी तरह रची-बसी थीं। मॉडर्न होने की सनक ने उनके आचार, विचार,  व्यवहार और यहां तक कि संस्कार, सभी को दूषित कर दिया था। और तुम तो उनके सबसे प्रिय शिष्य थे, उनके मार्गदर्शन में अपना शोध कर रहे थे। शोध पर वार्तालाप करने के लिए तुम्हारा डॉ. मोहिनी कश्यप से अक्सर मिलना होता रहता था।
तुम्हीं तो अक्सर बताया करते थे कि डॉ. मोहिनी कश्यप बहुत खुले विचारों की थीं। वे खुलकर सिगरेट पिया करती थीं, और वे तुम्हें भी सिगरेट ऑफर करती थीं और तुम ख़ुशी-ख़ुशी उनका साथ दिया करते थे। तुमने तो उनका एक रहस्य भी मुझसे साझा किया था कि वे अपने केबिन में कभी-कभी पेग भी लगाया करती थीं। डॉ. मोहिनी कश्यप का जैसा नाम था, वैसा ही उनका गुण भी रहा होगा। तभी तो बहक गए थे तुम, प्रभात। हमेशा संयमित रहने वाला तुम्हारा व्यक्तित्व भी उस काजल की कोठरी में कलुषित हो गया था। तभी तो तुम्हारे हृदय में प्रवाहित होने वाला वह पवित्र निर्झर डॉ. मोहिनी कश्यप रूपी उस उन्मुक्त धारा में विलीन होता चला गया था।
काश ! मुझसे एक बार कह पाते तुम, प्रभात ! मैं तुमसे तुम्हारा सुख छीन तो न लेती ? जिसका सब कुछ लुट रहा हो, वह तुमसे क्या छीन सकता था, प्रभात। तुम्हारे सामने तो मैं एक याचक थी। तुम्हारा थोड़ा-सा प्यार पाने को आतुर–एक अनधिकार चेष्टा की तरह। बस यही अफ़सोस है मुझे, प्रभात कि मैं अपना सर्वस्व लुटाकर भी तुम्हें उस अपवित्र नदी में समाहित होने से नहीं बचा पाई थी।
याद है, प्रभात ? हमें जब कभी भी मौक़ा मिलता तो हम दोनों भेड़ाघाट जाया करते थे। वहां घंटों बैठकर हम नर्मदा नदी के अविरल प्रवाह को मंत्रमुग्ध होकर देखा करते थे। भेड़ाघाट पर नदी की अशांत धाराएं हमें बहुत आकर्षित करती थीं। पर थोड़ा आगे जाते ही बंदर-कूदनी पर नर्मदा नदी शांत और धीर-गंभीर बन जाती थी। वहां वोटिंग करते समय, दोनों किनारों पर सदियों से खड़ी मौन संगमरमर की चट्टानों को हम दोनों आश्चर्य मिश्रित दृष्टि से निहारा करते थे।
एक दिन तुम नर्मदा नदी की शांत लहरों में खोए हुए बोले थे, “जानती हो , संध्या, नर्मदा एक चिरकुंवारी नदी है। न जाने यह कितनी पीड़ा समेटे हुए है अपनी लहरों में। व्यथा और करुणा का प्रवाह है यह नदी–न जाने कितने युगों से।”
“कैसी व्यथा और करुणा, प्रभात ?” मैंने उत्सुक होकर पूछा था।
तुमने प्राचीन धर्म ग्रंथों की कथा सुनाई थी, “जानती हो, संध्या, नर्मदा और सोन, दोनों नदियां मैकल पर्वत पर स्थित अमरकण्टक नामक स्थल से निकलती हैं। विचित्र बात यह है कि एक ही स्थान पर इन दोनों नदियों का उद्गम होने के बावजूद दोनों नदियां एक दूसरे की विपरीत दिशाओं में प्रवाहित होती हैं। इसके पीछे की कथा बहुत मार्मिक है, संध्या।”
सुनकर मैं बहुत जिज्ञासु हो चली थी और तुमसे आगे की कथा सुनाने की विनती की थी। तुमने बताया था, “राजा मैखल की पुत्री राजकुमारी रेवा(नर्मदा) और राजकुमार सोनभद्र, दोनों का विवाह तय हो गया था। विवाह होता इसके पहले ही राजकुमार सोनभद्र के जीवन मे एक जुहिला नामक महिला आई और दोनों एक दूसरे पर आसक्त हो गए। जब नर्मदा को मालूम हुआ तो उसे बहुत दुःख हुआ और नर्मदा ने प्रतिज्ञा की कि वह चिरकुंवारी रहेगी। इसके बाद ही नर्मदा विपरीत दिशा में प्रवाहित होने लगी थी। नर्मदा पश्चिम की ओर बहती हुई अरब सागर से मिलती है और सोनभद्र एवं जुहिला पूर्व की ओर प्रवाहित होते हैं।”
कहकर तुम एकाएक ख़ामोश हो गए थे। जैसे नर्मदा नदी का समूचा दर्द उभर आया हो तुम्हारे चेहरे पर।
“फिर क्या हुआ था, प्रभात, बताओ न ?” मैंने खोए हुए पूछा था।
“क्या होना चाहिए था, संध्या ?” तुमने भी बदले में मुझसे प्रश्न किया था, “एक असहनीय विश्वासघात सहना पड़ा था नर्मदा को। अब तुम ही बताओ, जो अपना सर्वस्व न्योछावर करके भी छला जाय, उसे क्या करना चाहिए ?”
तुम्हारे चेहरे पर उभर आया आक्रोश मुझे आज भी याद है, प्रभात। मुझे खामोश पाकर तुमने आगे कहा था, “एक स्वाभिमानी नारी कभी असहाय नहीं होती, संध्या। इसलिये बिना विचलित हुए नर्मदा ने चिरकुंवारी रहने की प्रतिज्ञा की थी। इस तरह अपनी पीड़ा को ही अपना संबल बना लिया था नर्मदा ने।”
कहकर तुम खामोश हो गए थे। नर्मदा का समूचा दर्द एक स्मृति-चिन्ह सा चमकने लगा था तुम्हारे चेहरे पर। अपने भीतर चल रहे अंतर्द्वंद्व से पल भर को मुक्त होकर तुमने अचानक मुझसे पूछा था, “नर्मदा का निर्णय ठीक था न, संध्या ?”
मैं बोली, “किसी के विश्वासघात से ख़ुद को सज़ा देना तो कोई बुद्धिमानी नहीं कहलाएगी, प्रभात। नर्मदा ने तो अपना सब कुछ ही खो दिया।”
“तुम भी नारी हो न, इसलिए हमेशा खोने और पाने के हिसाब में उलझ जाती हो।” कहते हुए तुम थोड़ा उत्तेजित हो गए थे, “अपना सर्वस्व खोकर भी महान उपलब्धि हासिल की जा सकती है, संध्या। अपनी व्यथा को अपने अंतर्मन में छिपा लेना अपने आपमें बहुत बड़ी बात होती है। जो अपनी व्यथा-पीड़ा को अपनी चेतना पर हावी नहीं होने देते, वही पूजनीय हो पाते हैं।आज नर्मदा की पवित्रता को कौन अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित नहीं करता, बोलो तो ? कहते हैं जो फल गंगा में नहाने से मिलते हैं वे नर्मदा के दर्शन मात्र से मिल जाते हैं। यही उपलब्धि तो चिरस्थायी है, जो अनंत काल तक अक्षुण्ण बनी रहेगी। खोया तो था सोनभद्र ने। तभी तो प्रायश्चित के लिए उसे गंगा की शरण में जाना पड़ा।”
उस दिन मैंने तुम्हारा एक नया रूप देखा था। मन-ही-मन नर्मदा नदी की विशालता और पवित्रता के आगे मैं नतमस्तक हो गई थी।
तुम वही प्रभात हो न ? तुम्हारे कितने रूप हैं, प्रभात, बताओ तो भला ? तुम वास्तव में हो कौन, प्रभात ? नर्मदा के दर्द को हृदय की गहराइयों से महसूस करने वाले, या उस दर्द को भुलाकर स्वयं सोनभद्र बन जाने वाले ?
प्रभात, तुमने ही भुला दिया उस दर्द को। इतने निष्ठुर तुम कैसे हो गए, प्रभात ? मेरा स्वाभिमान तो तुमसे जुड़ा हुआ था। तुम मेरे क़रीब थे इसलिए मैं अपने अस्तित्व को स्वीकार कर पाती थी, उस पर गर्व होता था मुझे। अब मैं कैसे समेटूं अपने स्वाभिमान के खंडहरों को ? मैं कैसे अंगीकार कर पाऊंगी चिरकुंवारी रहने की प्रतिज्ञा को ? अपनी पवित्रता का बोझ लिए कब तक बह पाऊंगी एक लावारिस ज़िंदगी की तरह ?
तुमसे मुझे बहुत कुछ मिला है, प्रभात। मुझे अपना एक छोटा सा प्रायश्चित और दे दो। लौट आओ मेरे पास और अपनी इस संध्या को, अपनी इस चिरकुंवारी नदी को प्रतिज्ञा बंधनों से मुक्त कर दो।
लौट आओगे न, प्रभात ?
— श्रवण कुमार उर्मलिया

श्रवण कुमार उर्मलिया

19/207 शिवम खंड, वसुंधरा, गाज़ियाबाद-201012 मोब. 9999903035/9868549036 ईमेल: [email protected]