व्यंग्य – रे हरजाई पितृ-पक्ष !
पितृपक्ष प्रारंभ हुए कई दिन बीत गए थे पर स्व. बनवारी लाल को नर्क में पितरों वाली खीर-पूड़ी नहीं मिल रही थी। पहले तो कभी ऐसा नहीं हुआ था। पहले पितृ-पक्ष शुरू होते ही बिला नागा स्वादिष्ट भोजन आने लगता था और बनवारी लाल की आत्मा तृप्त होती रहती थी। लेकिन अबकी बार दूर दूर तक सन्नाटा दिख रहा था ? बड़ी मुश्किल से तो एक साल बाद पितृ-पक्ष आता है। उसके लिए इतना लंबा इंतजार करना पड़ता है कि आत्मा की सहनशक्ति भी जवाब दे जाती है। इस दौरान नरक का खाना खा-खाकर नरक में भी नरक का अहसास होने लगता है। एक बार उन्होंने नरक के किचेन में जाकर रसोइयों से पूछा भी था- “यारो, तुम लोग कुछ खाने लायक स्वादिष्ट खाना नहीं बना सकते ?” रसोइयों के मैनेजर ने बताया- “आदरणीय बनवारी लाल जी, हम सब धरती के जेलखानों के मरे हुए रसोइए हैं। हम वैसा ही खाना बना सकते हैं जैसा जेलखानों में मिलता है।”
बहरहाल बनवारी लाल जी के सामने विकट समस्या उत्पन्न हो गई थी। धीरे-धीरे पूरा पितृ-पक्ष सूखा-सूखा बीता जा रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे धरती पर तो पितृ-पक्ष का मधुमास छाया हो पर वे घनघोर पतझड़ से घिर गए हों। वे जानते थे कि माँ-बाप के जिंदा रहते उनके तीनों बेटे माँ-बाप को बांट नहीं पाए थे। इसलिए बनवारी लाल जी के स्वर्ग सिधारते ही उन्होंने माँ-बाप का वार्षिक श्राद्ध बांट लिया था। उनको नरक सिधारे हुए यह तीसरा साल चल रहा था। पहले साल बड़े बेटे ने विधिपूर्वक श्राद्ध किया था और उन भोज्य पदार्थों का सेवन कर बनवारी लाल जी की आत्मा तृप्त हो गई थी। दूसरे साल मझले ने भी ठीकठाक ही श्राद्ध किया था। माना कि मझला थोड़ा कंजूस है पर उसकी पत्नी संस्कारों वाली है, उसने कोई कमी नहीं होने दी होगी। इस साल छोटे बेटे का नंबर था। वह लापरवाह ज़रूर है पर इतना कृतघ्न तो कतई नहीं हो सकता कि पितरों का श्राद्ध न करे।
बनवारी लाल गहन चिंता में थे। तो ऐसा आखिर हुआ क्या कि इस साल मुझे मेरा प्राप्य भोग नहीं मिल रहा है ? छोटा बेटा माँ का लाडला रहा है। तो कहीं ऐसा तो नहीं कि उसने सिर्फ़ अपनी माँ को याद किया हो और मुझे भूल गया हो ? वह दुष्ट ऐसा कर भी सकता है। ससुरी बुढ़िया इस बेटे से मेरे ऊपर जासूसी करवाती थी कि मैं इधर-उधर ताक-झांक तो नहीं करता हूँ। उस दिन बुढ़िया बाजार गई थी और पड़ोसन उसकी अनुपस्थिति में उसे जलाने के लिए अपनी नई साड़ी पहन कर हमारे घर आई थी। पड़ोसन का वह अप्रतिम रूप देखकर मेरे मुंह से अनायास प्रशंसा के शब्द निकल गए थे- “आज तो आप छा गईं, शिल्पा जी ! लगता है आज आप चाकू-छुरियां चलवाएँगी !” उन्होंने लजाते हुए बड़ी अदा से कहा था- “बनवारी लाल जी, आप भी न बड़े वो हैं !” छोटे बेटे ने सारा किसा हू-ब-हू अपनी माँ के सामने बयान कर दिया था। अपनी मम्मी का चमचा कहीं का ! कितना तो लड़ी थी यशोदा। तभी से वह मुझसे कुछ कटी-कटी सी रहने लगी थी।
बनवारी लाल जी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। इस साल मेरे हिस्से का हलुआ-पूड़ी आख़िर गया तो गया कहाँ ? एक तो ये डेलीवरी बॉयज का काम जो कौवों को सौंपा गया है इसमें ज़रूर कोई लोचा है। भला कौवा-प्रजाति पर भी विश्वास किया जा सकता है ? इतने सारे एक से बढ़कर एक पक्षी थे जो कौवों से लाख गुना बेहतर साबित होते। बताओ भला, जो कौवा हमें छू ले तो प्राणों पर संकट मंडराने लगता है ! जान बचाने के लिए टोटका करना पड़ता है। अपनी मौत की झूठी अफवाह फैलानी पड़ती है। ऐसी अपशगुन कौवा-प्रजाति के माध्यम से आखिर श्राद्ध-भोज का डेलीवरी-नेटवर्क क्यों स्थापित किया गया ? इनसे बेहतर तो चील, गिद्ध या बाज थे जिनकी उड़ान-क्षमता भी प्रबल हैं और ये कौवों के मुक़ाबले ईमानदार भी हैं। इनके द्वारा त्वरित-डेलीवरी नेटवर्क स्थापित हो सकता था। लगता है जब इस डेलीवरी-नेटवर्क का टेंडर भरा जा रहा होगा तो कौवों ने ज़रूर कोई चालाकी की होगी।
बनवारी लाल जी बहुत क्षुब्ध थे, हीनता की भावना से ग्रसित थे। साला, मरने के बाद भी आराम नहीं। पितृ-पक्ष में भी उन्हें नरक की कैंटीन का खाना खाना पड़ रहा है। बाकी आसपास के सारे साथी मालपुए उड़ा रहे हैं। और नरक में भी पड़ोसी बने बनवारी लाल के धरती के लुच्चे पड़ोसी रोशन लाल की मस्ती तो देखो ! ससुरा पिछले दस दिनों से लगातार खीर-पूड़ी मसक रहा है। बनवारी लाल जी को एक बात समझ में नहीं आ रही थी। रोशन लाल का तो कोई बेटा था नहीं। फिर ऐसा कौन है जो उसको स्वादिष्ट भोज्य पदार्थ डेलीवर करवा रहा है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरे हिस्से की श्राद्ध का मालपानी ये कौवे रोशन लाल या किसी और को पहुंचा रहे हों ? अब कोई डेलीवरी प्राप्ति की रसीद वाला सिस्टम तो है नहीं। और इन कौवों के भी तो पूर्वज होते होंगे। कहीं ये ससुरे मेरे श्राद्ध का मैटीरियल अपने पूर्वजों को तो नहीं पहुंचा रहे हैं ? कैसे पता लगे कि आखिर उनके साथ यह हो क्या रहा है ? किससे शिकायत करें, किससे अपने साथ हो रहे अन्याय के लिए न्याय की गुहार लगायें ?
उन्होंने सोचा कि क्यों न यशोदा से चलकर पूछा जाय ? ज़रूर उसका यह पितृ-पक्ष भी परेशानी में गुज़र रहा होगा। जब खीर-पूड़ी की डेलीवरी मुझे नहीं हो रही है तो उस बेचारी को भी कहाँ हो रही होगी। इसी बहाने उससे मिलकर दुःख-सुख साझा कर लूंगा। आखिर वह मेरी जीवनसंगिनी रही है। पर एक मुसीबत है। बुढ़िया मुझसे दो साल पहले निकल ली थी और न जाने क्या सोर्स लगाकर उसने अपने लिए स्वर्ग सुरक्षित करवा लिया था। उससे मिलना है तो नरक की ऑथारिटी से परमिशन लेनी होगी। स्वर्ग से भी वीसा लेना होगा। आजकल नरक के रोहिंग्याओं के द्वारा उधर बहुत घुसपैठ हो रही है इसलिए बहुत कड़ाई है। ख़ैर, उन्होंने आवेदन लगा दिया और प्रभारी यमदूतों से शिफ़ारिस भी करवा ली। बनवारी लाल धरती पर मर तो गए थे पर उनकी खुराफ़ाती बुद्धि दाह-संस्कार के समय जल नहीं पाई थी। उसी खुराफ़ाती बुद्धि के बलबूते इन्होंने कुछ यमदूतों की चोरियां पकड़ ली थीं और जब-तब उन्हें ब्लैक-मेल करते रहते थे।
जल्दी ही उन्हें नरक और स्वर्ग दोनों से परमिशन मिल गई। असंख्य दरवाजों को पर करते हुए बनबारी लाल जी अपनी पत्नी यशोदा के सामने जा खड़े हुए। उन्होंने सोचा था कि मिलते ही पत्नी के गले लग जाएंगे। पर पत्नी ने कोई उत्साह नहीं दिखाया तो उन्होंने पूछा- “पैर भी नहीं छुओगी, यशोदा ?” पत्नी बोली- “यहाँ नरक के लोगों को छूना मना है। वे यहां वायरस-कैरियर समझे जाते हैं।” सुनकर बनवारी लाल जी उदास हो गए और तुरंत मुद्दे की बात पर आ गए-“तू मुझे ये बता कि इस बार श्राद्ध का ज़िम्मा हमारे छोटे बेटे पर था न ? फिर उसने श्राद्ध नहीं किया होगा क्या ? मुझे पिछले दस-बारह दिनों से कोई भी खाद्य-सामग्री नही मिल रही है।” पत्नी ने उन्हें धिक्कारते हुए कहा- “वह मेरा बेटा है। लापरवाह हो ही नहीं सकता। मेरे बेटे पर लांछन मत लगाइए। मुझे तो बराबर सभी कुछ नियमित मिल रहा है।” बनवारी लाल जी ने क्रोधित होकर कहा- “तो क्या मैं झूठ बोल रहा हूँ ?” पत्नी ने दो टूक कहा दिया- ” जी हाँ, आप झूठ बोल रहे हैं !”
सुनकर बनबारी लाल जी दुःखी तो हुए पर निराश और हताश नहीं हुए। उन्होंने मन ही मन सोचा कि अपने साथ यह अन्याय नहीं होने दूंगा। उन्होंने स्वर्ग के देवता इंद्र भगवान से मिलना चाहा पर द्वारपालों ने उन्हें समझाया कि यह समस्या चित्रगुप्तजी ही सुलझाएंगे। इसलिए उनसे मिलना ही ठीक रहेगा। इन्द्रजी तो आजकल अप्सराओं में इतने डूबे हुए हैं कि उनके पास अपनी पत्नी से मिलने तक का समय नहीं है। इन्होंने चित्रगुप्त जी के पास पहुंचकर गुहार लगाई- “हुज़ूर माई-बाप, मुझे न्याय दीजिए। इस बार मेरे पास पितृ-पक्ष के पकवानों की डेलीवरी नहीं हो रही है।” चित्रगुप्त बोले- “नाम और पता बताओ ?” बनवारी लाल जी बोले- “बनवारी लाल, वल्द गिरधारी लाल, मकान नंबर 23, प्रीतम नगर, गाज़ियाबाद।” चित्रगुप्तजी ने बही-खाता देखकर बताया- “हमारे सिस्टम में गड़बड़ हो ही नहीं सकती। आपके तीसरे बेटे चुन्नी लाल ने बाकायदा विधिपूर्वक श्राद्ध किया है और खीर-पूड़ी उसके माँ-बाप तक पहुंच रही है।” बनवारी लालजी ने प्रतिवाद किया-“लेकिन हुज़ूर, मैं चुन्नी लाल का बाप हूँ। मुझे इस साल अभी तक कुछ भी नहीं मिला।”
चित्रगुप्तजी ने फिर बही-खाता देखकर कहा- “हमारे रजिस्टर के हिसाब से चुन्नी लाल के द्वारा किये गए श्राद्ध का भोग बाप रोशन लाल, वल्द किशन लाल, मकान नंबर 24, प्रीतम नगर, गाज़ियाबाद और माँ यशोदा देवी, पति बनवारी लाल को बराबर पहुंच रहा है। कहीं कोई गड़बड़ नहीं है।” सुनकर बनवारी लालजी वहीं बेहोश हो गए।
— श्रवण कुमार उर्मलिया