गीत/नवगीत

गीत – इंसानों में इंसान नहीं

कण कण में भगवान यहाँ
किंतु इंसानों में इंसान नहीं
मिले संवेदना मूक प्राणी मे
मानव ही अब दयावान नहीं
स्वार्थहित बेचा निज धर्म को
कायरता में जीता है जीवन
वृक्ष काट, शहर बसा लिये
मन को काटा, काटे है वन
दूसरे के धन घर हड़प रहा
खुद का अपना मकान नहीं

अश्रु का कारण बना परस्पर
झूठा अभिमान पाल रहा
माया मोह का जाल बुना स्वयं
न जाने किस भ्रम में डाल रहा
धर्मशीलता सहनशीलता छोडो़
मानवता का ही मोल नहीं
कड़वे वचन मुख से बोले जाते
रिश्ते की मिठास नहीं अनमोल
कौन कैसा कब बदल जायेगा
इसका किसी को भान नही

छल पनप कल के दामन में
विश्वास का जैसे अस्तित्व नहीं
शूल बोते है लोग आंगन में
फूल का जैसे अब महत्व नहीं
काल भरी घोर अंधेरी रातें
जीवन को पल में निगल रही
खंजर सम चुभती है बातें
प्रेम की परिभाषा बदल रही
किंतु मुर्ख तम को इतना दो बता
सत्य की शक्ति का तुझे ज्ञान नहीं

निज पौरुष के बल पर जीता
संग्राम का है विजय रथी वो
गरल को सहज सुधा सम पीता
रणवीर वो और महारथी वो
काल को चकमा दे सकता है
संकट देख जो डरा नही
यमराज शीष झुकता उसको
जो मर के भी मरा नही
विधाता का प्रिय वो मानव
जिसने बेचा स्वाभिमान नहीं
कण कण में भगवान यहाँ
किंतु इंसानों में इंसान नहीं

— आरती शर्मा (आरू)

आरती शर्मा (आरू)

मानिकपुर ( उत्तर प्रदेश) शिक्षा - बी एस सी