कैसे सोचूँ मैं, सबकी, बताओ मुझे-
कोई, इंसान एक, ढूंढ लाओ मुझे ।
जिसके अन्दर, समन्दर भावों का हो
ऐसे हृदय से, परिचित कराओ मुझे ।
अमावस के दलदल में, मैं हूँ फँसा
सोचना क्या है, तुम छोड़ जाओ मुझे ।
मैं मौन हूँ वृक्ष सा, कुछ कहूँगा नहीं
काटो भी, जल चढ़ाकर चिढाओ मुझे ।
एक झोंके के संग, सब बहे जा रहे
पड़ा रहने दो यहीं पर, हवाओ मुझे ।
यूँ तो चल रहीं, विकास की आँधियाँ
आत्मा का भी, करके दिखाओ मुझे ।
फूंक दे जान कोई, मेरे शव में जरा
या फिर गंगा किनारे, जलाओ मुझे ।
माना तुम आधुनिक, हो गए हो बहुत
पर वाहन दौड़ाकर, ना डराओ मुझे ।
— प्रमोद गुप्त