अब तो गलियों में आकर ही रहने लगे हैं-
ये भेड़िये, आदमी खुद को कहने लगे हैं ।
कल अहंकार में थे, जो पर्वत से ऊँचे-
अब, पहाड़ों की भाँति ही, ढहने लगे हैं ।
फल, मिलने लगा है, जो वो बो रहे थे-
प्रभु को याद कर हम सितम सहने लगे हैं ।
अपने कर्मों से चलते हैं, बुद्धि, समय भी-
जो खरीदे थे कल ही, बेचने गहने लगे हैं ।
लो आत्मा ढक गयी, तन-मन नंगे हुए हैं-
दिखती चमड़ी, मगर कपड़े पहने लगे हैं ।
अनोखे जमाने में, दम घुट रहा है हवा का-
अब तो पत्थर भी पिघल कर बहने लगे हैं ।
— प्रमोद गुप्त