कविता

शहर

बता कौन है ये अनजान शहर में अपना
 कब तक यूँ ही घुमु मारा-मारा शहर में
 चलो अब गाँव को चलते हैं
 ना हो पाएगा यूँ  गुजारा शहर में!!
 समंदर की भाँति  बिखर गए हैं
 मिला ना किनारा ये शहर में
 सरेआम लूट रही है यहाँ दुनिया
 है किसको शहर ने सुधारा शहर में!!
 लूट रहे हैं तेरे मयखाने में हम
 ना आएंगे फिर दोबारा शहर में
 खेलते हैं वो बहनों की इज्जत में वहशी
 यहाँ रक्त सब का है खारा शहर में!!
 बेटियों के पापी कभी खत्म नहीं होते
 चली है कैसी अजीब दौर ये शहर में
 चुनते हैं वह बच्चे कचरे से रोटी
 देखा है यह नजारा शहर में!!
 अजीब है यह रिवाज यहाँ के
 बंद दरवाजे से फेंकते अखबार शहर में
 सोच में डूबा मेरा यह मन
 कचरे वाले भी आवाज लगाते शहर में!!
 कब यहाँ पड़ोसी-पड़ोसी के गले मिलेंगे
 है कैसा मकान शहर में
 ‘राज’कहाँ  तक खपोगे तुम यहाँ
 किसी ने ना हम को उभारा शहर में!!
— राज कुमारी

राज कुमारी

गोड्डा, झारखण्ड