अबूझ
“बाप रे! घर है या भूत बंगला?”, मकड़ी के जालों और धूल-धक्कड़ से भरे बंगले का निरीक्षण कर राधा ने कहा, “मैं यहाँ नहीं रह सकती। तुम प्रॉपर्टी के दलाल को मना कर दो।”
“इतनी लंबी-चौड़ी प्रॉपर्टी कौड़ियों के भाव मिल रही है। इसके मालिक उम्र अधिक हो जाने से इकलौते बेटे के पास विदेश चले गए हैं। जिस रिश्तेदार ने मदद की थी, उसकी कमजोर माली हालत के कारण प्रॉपर्टी उसके हवाले करके। कोई लौटकर नहीं आने वाला, घूमघामकर कर देख लो, फैसला फुर्सत से करना।”
“पड़ोसियों से पूछा, इतनी बड़ी प्रॉपर्टी सस्ते दामों में क्यों बिक रही है?”
” दूर-दूर तक कोई मकान भी नहीं है, किससे पूछें?”
“हमारे ड्राइवर ने राहगीरों से पूछा था; उसे अविश्वसनीय सी कहानियांँ सुननी पड़ीं कि यहाँ रूहों का साया है। अंधेरा होने पर कोई इधर नही आता, तब बंगले की छत और बालकनी में साये दिखते हैं।”
“हो सकता है, वे सही हों।”
“विज्ञान शिक्षिका होकर ऐसा कहती हो! अभी बंगला भली-भाँति देख लो, तत्पश्चात इस क्षेत्र में घूम-घामकर मालूमात कर फैसला करना!”
“पुरुष बस मनमर्जी चलाना जानते हैं। अब देखो, बहस में अंकुर जाने कहाँ निकल गया? दिख नहीं रहा है। चलो ढूँढते हैं, यहीं कहीं होगा !”
“ड्राइवर! अंकुर को देखा?”
“बाबा को एक गेंद मिल गई है।पीछे बने गैरेज के पास खेल रहे हैं।”
“हम उधर ही चलें?”
“गेंद कहाँ से मिली अंकुर?”
“यहीं पड़ी थी, पापा।”
“आ ही गए हैं, तो गैरेज भी देख लें। पर गुच्छे में इसकी चाभी ही नहीं है।”
“यह ताला पानी और जंग से सड़ चुका है, चाभी क्या करेगी?” ड्राइवर ने ठोंक ठाँक कर ताला हटा दिया।
“रहना हुआ तो नया ताला लगेगा”, कहा।
शटर उठाते ही एक खस्ताहाल विदेशी कार नजर आई। कार का शीशा साफ करते ही सौ नंबर डायल करने की जरूरत आन पड़ी।
पुलिस ने आकर कार में से दो नर-कंकाल निकाले। पुलिस जाँच करेगी ही , पर कहानी इनके समझ में आ चुकी थी, घर के मालिकों के विदेश गमन की भी और टहलते सायों की भी; जो अपनी संपत्ति अपने हत्यारे के हाथों बिकने देना नहीं चाहते थे….
— नीना सिन्हा