एक गजल और
कहते हो तो लो हमसे सुनो एक गजल और
जीना है तो मरने की करो एक पहल और
सत्ता का नशा भ्रष्ट बनाने पे तुला है
वनवास को निकलो न गढ़ो एक महल और
जीवन का महाकाव्य जो पढ़ना है, तुम्हें तो
इन पलकों को बनने भी तो दो एक रहल और
पानी भी बदल देंगे जरा सब्र तो रक्खो
इस झील में खिलने भी तो दो एक कमल और
जितनी भी सुधा पास थी गजलों को पिला दी
अब फिक्र को पीने भी दो फिर एक गरल और
फिर वक्त के हाथों में बिगुल क्रान्ति का आया
होने भी दो फिर ‘शान्त’ कोई एक शगल और
— देवकी नन्दन शान्त